जिस उद्देश्य को लेकर कर्म किया जाता है, उसका पूर्ण होना कर्म साफल्य और अपूर्ण रहना कर्म वैफल्य है। कर्म साफल्य अभीष्ट होता है, कर्म वैफल्य अनभीष्ट। कर्म साफल्य की दशा में हम प्रसन्न होते हैं, गर्व से फूल उठते हैं और जो इसकी उपलब्धि में हमारे सहायक हुए होते हैं, उनके प्रति कृतज्ञ होते हैं।
ईश्वर का हाथ किस किस रूप में किस किस प्रकार कार्य करता है, ज्ञात अज्ञात रूप से कौन कौन हमारे कर्मपर ईश्वर का हाथ बन कर साधक बाधक प्रभाव डालते हैं।
कर्म वैफल्य हमें खिन्न करता है, हममें हीनत्व जगाता है और जो इसके निमित्त हुए होते है, उनके प्रति हमें रोष एवं खीझ से भर देता है। जीवन में कभी कर्म साफल्य के दर्शन होते हैं तो कभी कर्म वैफल्य के। परिणामतः हम प्रसन्नता खिन्नता, अहम्मन्यता- हीनता और अन्यों के प्रति कृतज्ञता -रूष्टता के हिंडोले पर झूलते रहते हैं।
यही प्रस्तुत लेख का विचारणीय विषय है। हमारा दृष्टिकोंण ऐसा होना चाहिए, जो कर्म साफल्य की दशा में उसके कुपरिणाम- अहम्मन्यता को हमसे दूर रखे। कर्म वैफल्य की दशा में उसके परिणाम- खिन्नता, हीनत्व, क्षोभ तथा अन्यों के प्रति रोष खीझ आदि से हमें अधिकाधिक अप्रभावित रख सके। ऐसा दृष्टिकोंण रखने से ही हमारा जीवन हिंडोले की चक्र घूममात्र न होकर स्वस्थ एवं संतुलित रहकर परम फल-शांति को उपलब्ध कर सकेगा।
कर्म करते हुए कर्म फल के प्रति हमारा दृष्टिकोंण मुख्यतः चार प्रकार का हो सकता है-
इस दृष्टिकोण के अनुसार कर्म करते हुए कर्म फल के संबंध में हम यह भावना रखते हैं कि हमें हमारे कर्म का फल मिलेगा, अवश्य मिलेगा, अत्यधिक मिलेगा।
इस दृष्टिकोंण के अनुसार कर्म करते हुए कर्म फल के संबंध में हमारी भावना में ऐसी निराशा भरी रहती है- कर रहे हैं , मिलना क्या है, कुछ मिलेगा भी तो नाममात्र को। मिलना न मिलना बराबर ही रहेगा।
यह दृष्टिकोंण रखकर कर्म करते हुए हमारी भावना में द्वैविध्य भरा रहता है। कभी सोचते हैं फल मिलेगा! नहीं मिलेगा! अत्यधिक मिलेगा! कभी ध्यान में आता है नहीं मिलेगा! मिलेगा भी तो नहीं के बराबर ही मिलेगा।
यह दृष्टिकोंण रखकर कर्म करते हुए कर्म फल के संबंध में हमारी भावना में कुछ इस प्रकार की निश्चिंतता एवं निरपेक्षता होती है-‘फल मिले तो अच्छा, न मिले तो भी वाह वाह। हमें तो काम से काम है।
इन चारों दृष्टिकोंणों में अंतिम – आशा निराशा निरपेक्ष दृष्टिकोण ही सर्वश्रेष्ठ ठहरता है। इसमें कर्म साफल्य की संभावना सर्वाधिक तथा कर्म वैफल्य की संभावना न्यूनतम है। कारण यह है कि इस दृष्टिकोंण के अनुसार काम करके हम उस रस को प्राप्त कर सकेंगें, जो कार्य करते करते स्वतः प्राप्त होता है। उसी से तृप्ति लाभ करते हुए हम मन को फल की ओर नहीं दौड़ने देंगें, इससे काम करने में हमारी तन्मयता और फलतः उसकी उत्तमता बहुत बढ़ जायेगी। साथ ही इस दृष्टिकोंण के कारण काम करते करते हम फल का चिंतन करने में तथा उसके स्वप्न देखने में समय नष्ट नहीं करेंगें। इस तरह पूरा समय एवं ध्यान काम की पूर्ति में लगायेंगें, जो कर्म साफल्य की संभावनायें बढ़ाने वाला है।
सिद्धान्ततः प्राप्ति की संभावित आशा से युक्त वस्तु के मिलने से उतना सुख नहीं मिलता, जितना उसकी अप्रत्याशित उपलब्धि से प्राप्त होता है। आशा-निराशा निरपेक्ष दृष्टिकोंण वही रख सकता है, जिसने सदग्रंथों को पढ़कर, संतों के श्रीमुख से कुछ श्रवण कर तथा स्वयं सम्यक विचार कर यह निश्चित रूप से जान लिया है, हृदयंगम कर लिया है कि किसी भी कर्म का कर्त्ता केवल मनुष्य ही नही होता, अपितु उसके कृतित्व में अधिष्ठान, पूर्व प्रारब्ध एवं परमेश्वर का भी हाथ होता है।
ईश्वर का हाथ किस किस रूप में किस किस प्रकार कार्य करता है, ज्ञात अज्ञात रूप से कौन कौन हमारे कर्मपर ईश्वर का हाथ बन कर साधक-बाधक प्रभाव ड़ालते हैं , यह एक अलग विषय है। ऐसे समझदार व्यक्ति ही आशा निराशा निरपेक्ष दृष्टिकोंण रख पाते हैं। फलतः साफल्य की दशा में उन्हे अंहकार नही होता, अपितु उनमें ईश्वर के प्रति कृतज्ञता पनपती है। इतना ही नही, अहंकार की न्यूनता के कारण वह प्रबल वेग से उमड़ती है।
आशा निराशा निरपेक्ष दृष्टिकोंण के रखते हुए भी यह आवश्यक नही कि कर्म साफल्य ही प्राप्त हो, कर्म वैफल्य भी हाथ लग सकता है। उसी दशा में उपर्युक्त्त दृष्टिकोंण रखने से हमें दुख नही होगा क्योकि दुख होता है – आशा लगाये रखने से जब हमने आशा रखी ही नही तब फिर हमें दुख क्यों हो। इसी प्रकार न हम खिन्न होते हैं, न हीनत्व बोध करते हैं क्योकि जब हमने अपने को कर्ता नही माना, तब उसके परिणाम को अपने ऊपर क्यों लें? अन्य के प्रति रोष एवं खीझ का तो प्रश्न ही नही उठता क्योंकी साधक बाधक किसी भी रूप में ईश्वर के हाथ के अतिरिक्त और कौन है? फिर ईश्वर के प्रति रोष एवं खीझ तो कोई अज्ञानी ही करेगा, विवेकी नहीं।
उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट है कि कर्म करते हुए कर्म फल के प्रति सर्वोत्तम दृष्टिकोंण आशा निराशा निरपेक्षता का ही है। इसकी स्वाभाविकता के कारण इसे धारण करना भी नही है पर हम स्वाभाविक नहीं रह गये हैं। अतः यह भी सरल नही रह गया है। जब हम अपने को अहं की चपेट में समेट आशा निराशा के पुतले बन चुके हैं, तब इससे तनिक नीचे उतर कर आशा का दृष्टिकोंण ही धारण करना उत्तम है क्योकी इससे भी कुछ सीमा तक हमारा काम ठीक चल सकता है।
आशा का दृष्टिकोंण वही व्यक्ति रख सकता हे, जो आत्म विश्वास से पूर्ण हो। आत्म विश्वास से पूर्ण वही हो सकता है, जिसे ईश्वर पर विश्वास हो और जिसके मन का तार उस परम शक्ति से जुड़ा हो। परम शक्ति से निरवच्छिन्नता ही आत्म विश्वास को जगाती पनपाती है ऐसे ईश्वर विश्वास की कर्म शक्ति अत्यधिक बढ़ जाती है। वह अत्यंत उत्साह जोश एवं उमंग से जीजान लगाकर काम करता है। फलतः कर्म साफल्य की संभावनायें अधिक बढ़ जाती हैं।
कर्म साफल्य की दशा में यद्यपि उसे उतना सुख तो नही मिलता जितना आशा निराशा निरपेक्ष दृष्टिकोंण रखने से प्राप्त होता है, फिर भी पर्याप्त सुखोपलब्धि संभव है। यह बात अलग है कि यह अत्यंत सुख नही है। हाँ! इसमें अहम्मन्यता के वशीभूत हो जाने का भय अवश्य है क्योकि ऐसी दशा में व्यक्ति बहुधा अपने सीमित ‘स्वयं’ को सब कुछ समझ लेता है। उस सागर से एक रूप रहे तो यह भय भी नही रहेगा। उस स्थिति में तो हृदय में परम शक्ति और उससे संबंधित रूपों के प्रति सहज कृतज्ञता की बाढ़ उमड़ पड़ेगी।
अब रहा आशा निराशा मिश्रित दृष्टिकोंण। यह वास्तव में स्वतंत्र दृष्टिकोंण नही है। इसमें आशा निराशा- दोनों दृष्टिकोंणों का समय समय पर दौर सा आता जाता रहता है। इस दृष्टिकोंण के रहते हुए मनुष्य कभी उत्साह से काम करता है, कभी भारी मन से, कभी उमंग से भरा रहता है, कभी बुझेपन से । फलतः काम भी ऐसा ही होता है। फीका-फीका और निर्जीव सा तथा फल भी तदनुरूप ही मिलता है। कर्म साफल्य की स्थिति में सुख भी फीका फीका सा प्राप्त होता है। इसके गुण रूप में यह कहा जा सकता है कि कर्म वैफल्य की दशा में दुख का आवेग भी असाधारण नही होता। स्पष्ट ही है जैसा दृष्टिकोंण रखना चाहिए, उसके नाते इसकी उपयोगिता ‘न’ के बराबर ही है।
आशा-निराशा निरपेक्ष दृष्टिकोंण बिरलों का ही होता है। केवल आशा और केवल निराशा का दृष्टिकोंण भी बहुत थोड़े ही व्यक्ति रखते हैं। अधिकतर व्यक्ति तो आशा निराशा मिश्रित दृष्टिकोंण रखते हैं। रखते क्या हैं, कहना चाहिए – रहता है। चाहिये यह कि सभी दृष्टिकोंणों की विशेषताओं पर सम्यक विचार करके, उन्हें भली भांति हृदयंगम कर, आशा-निराशा मिश्रित दृष्टिकोंण को अथक जागरूक प्रयत्न द्वारा आशा के दृष्टिकोंण में बदला जाय, जिससे कर्म द्वारा यथोचित फल लाभ हो ।
जिनका निराशा का दृष्टिकोंण हो, वे भी हठपूर्वक ही सही, जागरूक प्रयत्न द्वारा पहले उसे आशा निराशा मिश्रित तथा पीछे मात्र आशा के दृष्टिकोंण में बदल सकते हैं और इस तरह अपने कर्म को अधिकाधिक लाभप्रद एवं मनोकूल बना सकते हैं। दो पग आगे बढ़कर, और भी प्रयत्नशील होकर जो आशा के दृष्टिकोंण से आशा निराशा निरपेक्ष दृष्टिकोंण बदलने में सफल हो जाते हैं, उनका – उन यथार्थ मानवों का तो कहना ही क्या? वे योगी माने जाते हैं। वे जगदाधार से युक्त हो जाते हैं। जीवन – कृतार्थता – जगद्वन्द्यता सहज ही उनके चरण चूमने लगती है।
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