Dr.R.B.Dhawan (Guruji)
मानव सभ्यता के साथ ही रोग का इतिहास भी आरम्भ हो जाता है। मनुष्य जैसे ही किसी रोग की निश्चित औषधि खोज लेता है, प्रकृति एक नया रोग उत्पन्न कर देती है। इस प्रकार इंसान कितना भी होशियार बन जाये! प्रकृति कहती है- तू डाल-डाल मैं पात-पात। कारण- प्रकृति ने एक संतुलन भी तो बना कर रखना ही है।
मानव सभ्यता के विकास के साथ ही मानव ने रोगों से रक्षा हेतु प्रयत्न करना प्रारम्भ कर दिया था, तथा आज तक इसके निदान एवं उपचार हेतु प्रयत्न कर रहा है। जब हैजा, प्लेग, टी. बी. आदि संक्रामक रोगों से ग्रस्त होकर इनसे छुटकारा पाने के लिये विविध प्रकार का अन्वेषण हुआ तो कुछ-कुछ समय के बाद- कैंसर, एड्स, डेंगू, स्वाईन फलू, ईबोला और फिर अब ‘‘करोना’’ जैसे अनेक रोग उत्पन्न होते रहे हैं। जिनके समाधान एवं उपचार हेतु आज समस्त विश्व प्रयत्नशील है। विडम्बना यह है कि, मनुष्य जितना ही प्राकृतिक रहस्यों को खोजने का प्रयास करता है, प्रकृति इतना ही अपना विस्तार व्यापक करती चली जाती है, जिसके समाधान के समस्त उपाय कम पड़ जाते हैं, इस का प्रमुख कारण मानव में प्राकृतिक नियमों का आभाव ही प्रतीत होता है।
हमारे प्राचीन ऋषियों ने जहाँ अणुवाद, परमाणुवाद (ब्रह्मास्त्र) कीे व्याख्या की है, अध्यात्म की गहराइयों में गोता लगाया और ऋषियों ने प्रकृति एवं जीवात्मा के बीच सृष्टि प्रक्रिया के सिद्धांत को खोजा और स्वयं भी समझा और अपने ग्रंथों के माध्यम से हमें भी बताया। वहीं आकाशीय ग्रह नक्षत्रों को अपनी समाधि की अवस्था में कोसों दूर धरती पर बैठकर वेधित भी किया है। विश्व के सर्व प्राचीन ग्रन्थ ऋग्वेद से रोगों का ज्ञान, आरम्भ हो जाता है, जिसमें रोगाणुओं और विषाणुओं के अतिरिक्त मानस रोगों की भी चर्चा प्राप्त होती है।
पौराणिक कथाओं में तो विविध प्रकार के रोगों की चर्चा एवं उपचार के लिये औषधियों के साथ-साथ, मंत्रों का प्रयोग आवश्यक बताया गया है, जिसका वर्णन विस्तारपूर्वक प्राप्त होता है। आर्य परम्परा में तो रोगों का निश्चय और उपचार करने के लिये ज्योतिष शास्त्रीय ग्रहयोगों और आयुर्वेदीय परम्परा का विकसित दर्शन होता है। इसी लिये माना जाता है की ज्योतिष शास्त्र और आयुर्वेद का चोली-दामन का सम्बंध रहा है।
ज्योतिष शास्त्र ने ही प्रधान रूप से रोगोत्पत्ति के मूल कारणों में कर्म को मूल कारण स्वीकार किया है, इसीलिये ज्योतिष के साथ-साथ आयुर्वेद में भी कर्मज (अपने की कर्म से उत्पन्न रोग) एवं दोषज (पूर्व जन्मों में किये गये कर्म के दोष) इन दो प्रकार की व्याधियों की चर्चा तो उपलब्ध होती ही है। साथ ही साथ तीसरी आगन्तुक व्याधि का भी उल्लेख प्राप्त होता है।
ज्योतिष शास्त्र के ग्रन्थों में रोग और उसकी प्रकृति को पहचान कर औषधी तथा मंत्रों के द्वारा चिकित्सा का वर्णन मिलता है। इस पुस्तक रोग और ज्योतिष में सभी रोगों की चिकित्सा तो नहीं दी जा सकी क्योंकि प्रकृति नये-नये रोगों की उत्त्पत्ति समय-समय पर करती रहती है।
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