वट-सावित्री व्रत महत्व, पूजा व कथा

वट-सावित्री व्रत महत्व, पूजा व कथा

वट-सावित्री व्रत तिथि 30 मई 2022 (ज्येष्ठ कृष्ण अमावास्या), दिन सोमवार को बट सावित्री व्रत इस वर्ष है, इस व्रत में सुहागन स्त्रीयाँ सोलह सिंगार करके अपने पति की लंबी उम्र के लिए वट वृक्ष (बरगद का पेड़) की पूजा करती हैं. बरगद के पेड़ को चिरंजीवी कहा जाता है। वट देववृक्ष है। वटवृक्ष के मूल में- ब्रह्मा, मध्य में श्रीविष्णु तथा अग्रभाग में देवाधिदेव शिव स्थित रहते हैंदेवी सावित्री भी वट वृक्ष में प्रतिष्ठित रहती हैं। इसी अक्षय वट के पत्रपुटक पर प्रलय के अन्तिम चरण में भगवान श्रीकृष्ण ने बालरूप में मार्कण्डेय ऋषि को दर्शन दिये थे।

प्रयागराज में गंगा के तट पर वेणीमाधव के निकट यह अक्षयवट प्रतिष्ठित है। भक्तशिरोमणि तुलसीदास ने संगम-स्थित इस अक्षयवट को तीर्थराज का छत्र कहा है – संगमु सिंहासनु सुठि सोहा। छत्रु अखयबटु मुनि मनु मोहा।।

इसी प्रकार तीर्थों में पंचवटी का भी विशेष महत्व है। पाँच वटों से युक्त स्थान को पंचवटी कहा गया है। कुम्भजमुनि के परामर्श से भगवान श्रीराम ने सीता एवं लक्ष्मण के साथ वनवास काल में यहाँ निवास किया था।

वायु में हानिकारक तत्वों को नष्ट कर वातावरण को शुद्ध करने में वटवृक्ष का विशेष महत्व है। वटवृक्ष को औषधि के रूप में उपयोग किया जाता है इस तथ्य से सभी परिचित हैं। जैसे वटवृक्ष दीर्घकाल तक अक्षय बना रहता है, उसी प्रकार दीर्घ आयु, अक्षय सौभाग्य तथा निरन्तर अभ्युदय की प्राप्ति के लिये वटवृक्ष की आराधना की जाती है।

इसी वट वृक्ष के नीचे सावित्री ने अपने पतिव्रत से मृत पति को पुनः जीवित किया था। तब से यह व्रत वट-सावित्री के नाम से किया जाता है। ज्येष्ठ मास के व्रतों में ‘वटसावित्री-व्रत’ एक प्रभावशाली व्रत है। इसमें वट वृक्ष की पूजा की जाती है। महिलायें अपने अखण्ड भाग्य एवं कल्याण के लिये यह व्रत करती हैं । सौभाग्यवती महिलायें श्रद्धा के साथ ज्येष्ठ कृष्ण त्रयोदशी से अमावास्या तक तीन दिनों का उपवास रखती हैं ।

वट-सावित्री व्रत विधि

त्रयोदशी के दिन वट वृक्ष के नीचे व्रत का इस प्रकार संकल्प लेना चाहिये –

‘मम वैधव्यादिसकलदोषपरिहारार्थं ब्रह्मसावित्रीप्रीत्यर्थं सत्यव्रत्सावित्रीप्रीत्यर्थं च वटसावित्रीव्रतमहं करिष्ये।’

इस प्रकार संकल्प कर यदि तीन दिन उपवास करने की सामथ्र्य न हो तो त्रयोदशी को रात्रिभोजन, चतुर्दशी को अयाचित तथा अमावास्या को उपवास करके प्रतिपदा को पारण करना चाहिये। अमावास्या को एक बाँस की टोकरी में सप्तधान्य के ऊपर ब्रह्मा और ब्रह्मसावित्री तथा दूसरी टोकरी में सत्यवान एवं सावित्री की प्रतिमा स्थापित कर वट वृक्ष की पूजा करनी चाहिये, तथा उसके मूल को जल से सींचना चाहिये।

वट की परिक्रमा करते समस एक सौ आठ बार या यथाशक्ति सूत लपेटा जाता है। ‘नमो वैवस्वताय’ इस मंत्र से वट वृक्ष की प्रदक्षिणा करनी चाहिये। ‘अवैधव्यं च सौभाग्यं देहि त्वं मम सुव्रते। पुत्रान् पौत्रांश्च सौख्यं च गृहाणाघ्र्यं नमोऽस्तु ते।।’ इस मंत्र से सावित्री को अघ्र्य देना चाहिये और वट वृक्ष का सिंचन करते हुये निम्न प्रार्थना करनी चाहिये –
वट सिंचामि ते मूलं सलिलैरमृतोपमैः। यथा शाखाप्रशाखाभिर्व̀द्धोऽसि त्वं महीतले।। तथा पुत्रैश्च पौत्रैश्च सम्पन्नं कुरू मां सदा।।

चने पर रूपया रखकर बायने के रूप में अपनी सास को देकर आशीर्वाद लिया जाता है। सौभाग्य-पिटारी और पूजा-सामग्री किसी योग्य ब्राह्मण को दी जाती है। सिंदूर, दर्पण, मौली (नाल), काजल, मेहंदी, चूड़ी, माथे की बिन्दी, हिंगुल, साड़ी, स्वर्णाभूषण इत्यादि वस्तुयें एक बाँस की टोकरी में रखकर दी जाती हैं- यही सौभाग्य पिटारी के नाम से जानी जाती है। सौभाग्यवती स्त्रियों का भी पूजन होता है। कुछ महिलायें केवल अमावस्या को एक दिन का ही व्रत रखती हैं। इस व्रत में सावित्री-सत्यवान की पुण्य कथा का श्रवण करती हैं।

This may be useful for you : शीघ्र विवाह के लिए उपाय

वट-सावित्री व्रत कथा

एक समय की बात है कि मद्रदेश में अश्वपति नाम के महान प्रतापी और धर्मात्मा राजा राज्य करते थे। उनके कोई संतान न थी। पण्डितों के कथनानुसार राजा ने संतान हेतु यज्ञ करवाया। उसी के प्रताप से कुछ समय बाद उन्हें कन्या की प्राप्ति हुई, जिसका नाम उन्होंने सावित्री रखा। समय बीतता गया। कन्या बड़ी होने लगी।

जब सावित्री को वर खोजने के लिये कहा गया तो उसने द्युमत्सेन के पुत्र त्यवान को पति रूप में वरण कर लिया। इधर यह बात जब नारदजी को मालूम हुई तो वे राजा अश्वपति के पास आकर बोले कि आपकी कन्या ने वर खोजने में बड़ी भारी भूल की है। सत्यवान् गुणवान तथा धर्मात्मा अवश्य हैं, परंतु वह अल्पायु हैं। एक वर्ष बाद ही उसकी मृत्यु हो जायेगी।

नारदजी की बात सुनकर राजा उदास हो गये। उन्होंने अपनी पुत्री को समझाया-‘पुत्रि! ऐसे अल्पायु व्यक्ति से विवाह करना उचित नहीं है, इसलिये तुम कोई और वर चुन लो।’

इस पर सावित्री बोली-‘तात! आर्य कन्यायें अपने पति का वरण एक ही बार करती हैं, अतः अब चाहे जो हो, मैं सत्यवान् को ही वर रूप में स्वीकार करूँगी।’ सावित्री के दृढ़ रहने पर आखिर राजा अश्वपति विवाह का सारा सामान और कन्या को लेकर वृद्ध सचिव सहित उस वन में गये जहाँ राजश्री से नष्ट, अपनी रानी और राजकुमार सहित एक वृक्ष के नीचे द्युमत्सेन रहते थे।

विधि-विधानपूर्वक सावित्री और सत्यवान् का विवाह करा दिया गया। वन में रहते हुये सावित्री सास-ससुर और पति की सेवा में लगी रही। नारदजी के बतलाये अनुसार पति के मरणकाल का समय पास आया तो वह उपवास करने लगी। नारदजी ने जो पति की मृत्यु का दिन बतलाया था, उस दिन जब सत्यवान् कुल्हाड़ी लेकर लकड़ी काटने के लिये वन में जाने को तैयार हुआ, तब सावित्री भी सास-ससुर से आज्ञा
लेकर उसके साथ वन को चली गई।

वन में सत्यवान् ज्योंहि पेड़ पर चढ़ने लगा उसके सिर में असह्य पीड़ा होने लगी। वह सावित्री की गोद में अपना सिर रखकर लेट गया। थोड़ी देर बाद सावित्री ने देखा कि अनेक दूतों के साथ हाथ में पाश लिये यमराज खड़े हैं। यमराज सत्यवान् के अंगुष्ठ प्रमाण जीव को लेकर दक्षिण दिशा की ओर चल दिये। सावित्री भी यमराज के पीछे-पीछे चल दी।

सावित्री को आते देख यमराज ने कहा- ‘हे पतिपरायणे! जहाँ तक मनुष्य-मनुष्य का साथ दे सकता है, वहाँ तक तुमने अपने पति का साथ दे दिया। अब तुम वापस लौट जाओ।’ यह सुनकर सावित्री बोली- ‘जहाँ तक मेरे पति जायँगे, वहाँ तक मुझे जाना चाहिये। यही सनातन सत्य है।’

यमराज ने सावित्री की धर्म परायण वांणी सुनकर वर माँगने को कहा। सावित्री ने कहा- ‘मेरे सास-ससुर अंधे हैं , उन्हें नेत्र-ज्योति दें। ’यमराज ने ‘तथास्तु’ कहकर उसे लौट जाने को कहा, किंतु सावित्री उसी प्रकार यम के पीछे-पीछे चलती रही। यमराज ने उससे पुनः वर माँगने को कहा। सावित्री ने वर माँगा- ‘मेरे ससुर का खोया हुआ राज्य उन्हें वापस मिल जाये।

’यमराज ने ‘तथास्तु’ कहकर उसे लौट जाने को कहा, परंतु सावित्री अडिग रही। सावित्री की पति-भक्ति और निष्ठा देखकर यमराज अत्यंत द्रवीभूत हो गये। उन्होंने सावित्री से एक और वर माँगने के लिये कहा। तब सावित्री ने यह वर माँगा कि ‘मैं सत्यवान् के सौ पुत्रों की माँ बनना चाहती हूँ। कृपाकर आप मुझे यह वरदान दें।

’सावित्री की पति-भक्ति आदि से प्रसन्न हो इस अन्तिम वरदान को देते हुये यमराज ने सत्यवान् को अपने पाश से मुक्त कर दिया और वे अदृश्य हो गये। सावित्री अब उसी वटवृक्ष के पास आयी। वट वृक्ष के नीचे पड़े सत्यवान के मृत शरीर में जीव का संचार हुआ और वह उठकर बैठ गया। सत्यवान् के माता-पिता की आँखें ठीक हो गयीं और उनका खोया हुआ राज्य भी वापिस मिल गया। इससे सावित्री के अनुपम व्रत की कीर्ति सारे देश में फैल गयी।

इस प्रकार यह मान्यता स्थापित हुई कि सावित्री की इस पुण्य कथा को सुनने पर तथा पति-भक्ति रखने वाली महिलाओं के सभी मनोरथ पूर्ण होंगे और सारी विपत्तियाँ दूर होंगी। प्रत्येक सौभाग्यवती नारी को वटसावित्री का व्रत रखकर यह कथा सुननी चाहिये।

About Post Author

Tags: