महर्षि पाराशर ने द्वितीय-सप्तम भाव को मारक स्थान की संज्ञा दी है और इनके स्वामियों को मारकेश, वहीं द्वितीयेश एवं सप्तमेश पर जिन ग्रहों की दृष्टि पड़ती हो वे भी मारकेश की श्रेणी में आते हैं। जेमिनी सूत्र में मारक ग्रह का विचार करने हेतु-लग्नेश व अष्टमेश से, आत्मकारक व लग्न से, लग्न-सप्तम भाव से, द्वितीय व लग्न स्वामी से मृत्यु का विचार करना चाहिये। कुंडली में मारक योग है या मारकेश की दशा-अंर्तदशा पडने पर किसी की मृत्यु हो जाएगी यह तथ्य सामान्यतया अकारण ही भय की उत्पत्ति करता है जबकि ऐसा कुछ नहीं है, लग्नेश- अष्टमेश का बली होना आयु के लिये अनुकूल परन्तु यदि अष्टमेश से तृतीयेश बली हो जाए तो विपरीत फल होता है, कहने का तात्पर्य पूर्ण रूप से सभी दृष्टिकोण से विचार करने के पश्चात ही कुछ कहा जाये तो अधिक तर्कसंगत रहता है।
पापी ग्रहों की अष्टम भाव में स्थिति आयु के लिये शुभ नहीं, चन्द्रमा की अष्टम में स्थिति भी अशुभ नहीं साथ में अन्य पाप ग्रह भी हो तो इसका प्रभाव दुगना हो जाता है। चन्द्रमा यदि अष्टम भाव के रेखांश के बहुत नजदीक हो या अष्टम भावस्थ किसी ग्रह के 1 से 2 अंशों के भीतर रेखांश से स्थित हो तो यह स्थिति अनुकूल नहीं। अष्टम में मंगल केतु की स्थितियाँ दुर्घटना अथवा शल्य चिकित्सा की सम्भावना बढ़ाते हैं।
सामान्यतया जो भाव मृत्यु के कारणों को संदर्भित करते हैं अथवा संबधित ग्रहों का किसी भाव विशेष में बैठना जैसे तथ्यों पर सतही विचार अधिक किया जाता है। परन्तु कुण्डली के सर्वाधिक दूषित भाव 6, 8, 12 के स्वामियों के संयोग से भी कई मारक योगों का निर्माण होता है। उदाहरण हेतु भावार्थ रत्नाकर की मारक योग अध्याय में षष्ठेश की महादशा में अष्टमेश की अंतर्दशा, अष्टम में स्थित ग्रह की अंतर्दशा मारक हो सकती है।
मंगल मारक भाव अथवा अष्टमेश हो अथवा क्रूरेश हो तो मंगल की दशा मारक व शनि भले ही शुभ भावों का स्वामी हो यदि वह मारक ग्रहों के साथ हो तो मारक बन जाता है। पापी ग्रहों में यदि पापी शनि का मारक ग्रहों के साथ सम्बंध हो तो वह सभी मारक ग्रहों को हटाकर स्वयं मारक बन जाता हैं क्योंकि लघुपाराशरी में-
मारकैः सह सम्बंधान्निहन्ता पापकृच्छनिः। अतिक्रम्येन सर्वान् भवत्येव न संशयः।। (श्लोक – 28)
फलित ग्रंथों में द्वितीय द्वितीयेश, सप्तम-सप्तमेश को मारक परन्तु द्वितीयेश प्रबल मारक होता है। चूँकि ‘भावात-भावाम्’ के सिद्धांतानुसार अष्टम से अष्टम अर्थात् तीसरा भी आयु भाव हैं व अष्टम का व्यय भाव यानि सप्तम भाव तथा तृतीय का व्यय यानि द्वितीय भाव आयु को नष्ट करने वाले भाव होने से मारक हैं।
अष्टमेश कितना अधिक दुष्प्रभाव देगा, यह तथ्य तभी स्पष्ट हो सकता है जब अष्टमेश की समग्र स्थिति का अध्ययन हो –
(1) अष्टमेश यदि नवमेश भी बनता हो तो अशुभ की जगह सम फलदायक, वही केन्द्राधिपति हो जाये तो भी समफल।
(2) अष्टमेश का स्वभावस्थ होना या स्वभाव पर दृष्टि हो तो भी समफलदायक।
(3) जब दो मारक भावों का अधिपति हो जाये तो प्रबल मारकेश की संज्ञा प्राप्त कर लेगा। प्रबल मारकेश भी विशेष प्रभावी तब जब दो मारक भावों का स्वामी हो कोई ग्रह नीच राशिगत हो जाए अथवा क्रूर ग्रहों से अशुभफल प्रदायक।
(4) जन्म के समय लग्नेश या अष्टमेश की दशा चलती हो तो उस दशा के अन्त में मृत्यु।
(5) लग्नेश किसी पापग्रह की युति में अष्टम भावस्थ हो तो अष्टम भाव स्थित दोनों ग्रहों में जो निर्बल ग्रह हो उस की दशा में मृत्यु।
(6) क्रूर ग्रह, अष्टमेश या व्ययेश की अंतर्दशा में मृत्यु का समय शनि लग्नस्थ हो तो शनि की दशा में मृत्यु परन्तु अंतर्दशा किसी पापग्रह की होनी चाहिये।
(7) कोई पाप ग्रह मारकेश से युति करता हो तो मृत्यु भी पाप ग्रह की दशा में, लग्नेश-अष्टमेश की केन्द्र या त्रिकोण भाव में युति हो तो जातक की मृत्यु अष्टम भावस्थ ग्रह की दशा में।
संक्षेप में अगर यह कहा जाये तो अधिक उचित रहेगा कि जिस प्रकार त्रिकाधीश राजयोग नहीं बनाते, उसी प्रकार केवल मारकेश मारक फल नहीं देता, केवल अरिष्टप्रद अवश्य हो सकता है।
इन्दिरा जी की कुण्डली में लग्नेश चन्द्रमा केन्द्र में, पर लग्न-लग्नेश का शनि जैसे ग्रह से पीड़ित होना अपनी दशा में मारक के विषय को महत्वपूर्ण बना देते हैं। 1970 के आरम्भ में इन्हें शनि दशा प्रारम्भ हुई, चूंकि शनि तो यहाँ स्वयं मारक है। अतः 31 अक्टूबर को जब शनि-राहु का अन्तर लगा, जो मृत्यु का समय बना।
(1) अल्पायु योग :- निम्नाकिंत ग्रहों की स्थितियाँ अल्पायु का संकेत देती है। पाप ग्रह अष्टम व द्वादश भावस्थ हो, शनि अष्टमेश से युति करता हो, उस पर पाप ग्रहों की दृष्टि पड़ती हो, सुखेश पंचमेश दशम भावस्थ पाप ग्रहों से युति करते हों, लग्नेश की अष्टमेश या द्वादशेश से युति हो, तृतीयेश यदि अष्टम में पाप दृष्टि में चला जाये, लग्नेश यदि रोग स्थान या व्यय स्थान में हो, चन्द्रमा 6,8,12 में हो, लग्नेश यदि अष्टमेश से युति करें (गुरू की दृष्टि से विहीन), लग्नेश-अष्टमेश दोनों नीच स्थान अथवा अशुभ स्थान में हों।
(2) मध्यमायु योग :- लग्नेश भाग्येश की युति, अष्टमेश पर गुरू की दृष्टि, दशम में शुभ ग्रह की स्थिति हो, पंचमेश-राज्येश का सम्बंध अष्टमेश का केन्द्र भाव में होना, शनि लाभ भाव या मित्र राशि में हो, शनि भाग्य भाव में मित्र राशिस्थ व गुरू से दृष्ट, तृतीयेश-अष्टमेश लग्न में भाग्येश की दृष्टि युति, लग्नेश भाग्य भावस्थ तथा पंचमेश लग्न में हों।
(3) दीर्घायु योग :- यदि शनि अकेला अष्टमस्थ हो, अष्टमेश यदि रोग या व्यय भाव में साथ ही अष्टमेश स्थित राशि का स्वामी ग्रह अष्टम में हो, बुध, शुक्र व बृहस्पति केन्द्र या त्रिकोण में हो, भाग्येश-राज्येश लग्न में हो लग्नेश लग्नस्थ हो, राज्येश राज्यस्थ हो, लग्नस्थ बृहस्पति की राज्येश से युति हो या राज्येश से यह दृष्ट हो।
(4) मारक और शनि :- शनि को मारकेश के संदर्भ में एक दृष्टिकोण से देखा जाता है, क्योंकि यदि पापी शनि का मारक ग्रहों के साथ सम्बंध हो तो वह सभी मारक ग्रहों को हटाकर स्वयं मारक बन जाता हैं, ज्योतिष में शनि मृत्यु एवं यम का सूचक है। अतः इसके त्रिषडायाधीश या अष्टमेश होने से उसमें पापत्व तथा मारक ग्रहों से सम्बंध होने पर उसकी मारक शक्ति अपनी चरम सीमा पर पहुँच जाती है।
शनि यम एवातो विख्ख्यातो मारकः पुनः। अन्यमारक सम्बंधात् प्राबल्यं तस्य संस्फुटम्।।
पापी शनि जिस मारक ग्रह से सम्बंध करता है वह अमारक हो जाता हैं। अतः उस मारक ग्रह की दशा में मृत्यु ना होकर शनि दशा में मृत्यु।
मुख्य मारक शनि की दशा में शुक्र या अन्य मारक ग्रहों की अंतर्दशा मृत्युदायक होती हैं, अमारक शनि स्वयं नहीं मारता है, किन्तु मारक शुक्र की दशा में अपनी भुक्ति में मृत्यु देता है। मारक शनि के साथ यदि राहु-केतु बैठा हो तो राहु या केतु मारक।
शनि-शुक्र, शुक्र-बुध, गुरू-मंगल, सूर्य-चंद्र, गुरू-सूर्य, सूर्य-मंगल परस्पर मित्र होते हैं। इनमें भी शनि-शुक्र तो अभिन्न मित्र है अतः ये दोनों मारक अथवा कारक होने पर अपना फल एक दूसरे की अंतर्दशा दशा में देते हैं।
हत्या की सम्भावना :- हत्या में मंगल का प्रमुख योगदान रहता हैं, मंगल की निम्न स्थितियाँ हत्या अथवा शत्रु द्वारा आघात की सम्भावनाओं को बढ़ाती हैं। लग्नस्थ मंगल, द्वितीयस्थ, अष्टमस्थ, लग्न, द्वितीय या अष्टम में मंगल की स्थिति हो, अष्टमेश-षष्ठेश का परिवर्तन योग हो।
षष्ठेश मंगल शनि के साथ अष्टम भाव में हो अथवा अष्टमेश मंगल शनि के साथ छठे भाव में हों। अष्टमेश या षष्ठेश मंगल के साथ लग्न में हो, अष्टम भाव में मंगल राहु या शनि राहु हो। षष्ठेश अष्टमेश का परस्पर दृष्टि सम्बंध, छठे भाव में मंगल शनि हो। यह कुण्डली नेपाल के राजा वीरेन्द्र विक्रम की हैं, 8 जून 2001 की रात 9 बजकर 45 मिनट पर गोलियाँ मारकर हत्या कर दी गई थी। कुण्डली के चतुर्थ भाव में राहु$शनि की युति जो षष्ठेश सूर्य पर पूर्ण दृष्टि डाल सम्बंध बना रहा है, पंचमेश स्वयं मृत्यु स्थान में चला गया जबकि मंगल जो द्वितीयेश होने से मारकेश संज्ञक भी हैं। वह पंचम भाव में अपनी नीचस्थ स्थिति से संतान पक्ष की और से मिलने वाले घात का स्पष्ट संकेत देता है। इनका जन्म भी 28/12/1945 को 14ः35ः05 को कृष्ण पक्ष की दशमी को होने के कारण, चन्द्र अष्टम भावगत होने, जैसी स्थितियों के कारण इनकी हत्या हुई।
पाराशर होरा शास्त्र में लग्नानुसार मारकों की गणना बताई गई है।
अष्टम मारक स्थानं, अष्टमाद् अष्टमं च यत्। तयोरपि व्यय स्थानं मारक स्थान मुच्चेत।।’
प्रत्येक लग्नानुसार सप्तमेश व द्वितीयेश मारक बनते हैं उनकी दशा/अंतर्दशा आने पर मृत्यु का सामना करना पड़ता है।
मारकेश विवरण :-
लग्न द्वितीयेश सप्तमेश द्वादशेश अष्टमेश
मेष शुक्र शुक्र बृहस्पति मंगल
वृष बुध मंगल मंगल बृहस्पति
मिथुन चन्द्रमा बृहस्पति शुक्र शनि
कर्क सूर्य शनि बुध शनि
सिंह बुध शनि चन्द्रमा बृहस्पति
कन्या शुक्र बृहस्पति सूर्य मंगल
तुला मंगल शनि बुध शुक्र
वृश्चिक बृहस्पति शुक्र शुक्र बुध
धनु शनि बुध मंगल चन्द्रमा
मकर शनि चन्द्रमा बृहस्पति सूर्य
कुंभ बृहस्पति शनि शनि बुध
मीन मंगल बुध शनि शुक्र
सप्तमेश द्वितीयेश के अलावा समय व गोचरनुसार, योगवश कई लग्नों में अनेक ग्रह मारक बन जाते है।
अष्टमेश तथा अष्टम का अध्ययन
(1) अष्टमेश लग्न में स्थित होकर उसके तत्वों का नाश करेगा। अतः लग्नस्थ अष्टमेश तो दीर्घ कालीक रोग, विघ्न व बाधा कारक ही होता हैं परन्तु हाँ, यदि लग्नेश बली होकर अष्टम में बैठे तो वह उसे शत्रुजीत बनाता है।
(2) अष्टम दूसरे से सातवाँ होता है व द्वितीय कुटुम्ब स्थान व विपरीत इसके अष्टम मृत्यु का दोनों भावों पर स्थित ग्रह परस्पर भाव वृद्धि करेगें, अष्टमेश द्वितीय में हो तो धन-कुटुम्ब की हानि,रोगी, अल्पायु। यहाँ शनि अपवाद स्वरूप द्वितीय में बैठकर अष्टम भाव पर दृष्टि डाले तो दीर्घायु।
(3) तीसरा भाव अष्टम से अष्टम होने से आयु का गौण स्थान है अतः यहाँ अष्टमेश जातक को बंधु विरोधी, दुर्बल, अल्पसुखी तृतीयेश-अष्टमस्थ होने या अष्टम दृष्टि डाले तो दास कर्म करने वाला हो।
(4) अष्टम भाव चतुर्थ से पंचम तथा चतुर्थ भाव अष्टम से नवम तो अष्टमेश चतुर्थ में होकर सुख का नाश, पिता से शत्रुता व उग्र प्रवृत्ति को पैदा करेगा जबकि चतुर्थेश अष्टम में माता-पिता सुख विहीन व यौन दौर्बल्यता देगा।
(5) पाँचवा अष्टम से दशम होता है अतः कर्म स्थान तो अष्टमेश पाप ग्रह होकर पंचम में तो संतान हानि यदि अष्टमेश शुभ ग्रह हो तो संतान अल्पायु परन्तु जातक के विरूद्ध।
(6) अष्टम भाव छठे से तीसरा एवं छठा भाव अष्टम से एकादश अतः अष्टमेश षष्ठ में या षष्ठेश अष्टम में हो तो विभिन्न रोग, मृत्यु तुल्य कष्ट व जीवन उतार चढ़ाव युक्त।
(7) अष्टमेश का अष्टम भाव में होना जातक को निरोगी, क्षुद्र वर्ग का नेता, दीर्घायु बनाता है, कारक शनि अष्टम में आयु वृद्धि करता है। अष्टमेश शुभ ग्रह हो तो जातक शांतिपूर्वक मृत्यु को प्राप्त करता है।
(8) नवम् से अष्टम द्वादश होता है। व्ययकारक होने से अशुभ नवमेश के अष्टम में होने से दृष्ट, हिंसक, पुण्यहीन जबकि अष्टमेश नवम में हो तो एकांतवासी, संगरहित, हिंसक व पापी बनाता है।
(9) दशम भाव अष्टम से तीसरा तथा दशम से अष्टम ग्यारहवाँ भाव तो अष्टमेश दशम में हो तो जातक सरकारी कर्मचारी, आलसी व क्रूर प्रवृत्ति का।
(10) अष्टम भाव में एकादशेश हो तो जातक संघर्षरत, तस्करी जैसे कार्यों में संलग्न जबकि अष्टमेश एकादश में हो तो बाल्यावस्था में कष्ट, वृद्धावस्था में सुख।
(11) द्वादश अष्टम से पंचम एवं अष्टम द्वादश से नवम भाव है, द्वादश भाव व्यय भाव अतः अष्टमेश द्वादश में हो जातक खर्चीला, रोगी, स्वेच्छाधारी।
स्मरणीय तथ्य :- जीवन के किसी भाग में किसी ग्रह विशेष की दशा जब उचित समय पर आती है तभी वह पूर्ण रूप से प्रभावी होती है। उदाहरण हेतु यदि किसी मनुष्य की आयु मध्यायु हो और जब वह अल्पायु भाग में अपना जीवन भोग रहा हो और उस समय यदि मारक ग्रहों की दशा आ जाये तो इन मारक ग्रहों की दशा में कष्ट अवश्य मिलता है परन्तु मृत्यु नहीं होता।
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