शास्त्र का कथन हैं कि- ‘संदिग्धो हि हतो मन्त्र व्यग्रचित्ती हतो जपः’ सन्देह करने से मंत्र हत हो जाता है, और व्यग्रचित्त से किया हुआ जप निष्फल रहता है, संदिग्ध, व्यग्र, अश्रद्धालु और अस्थिर होने पर कोई विशेष प्रयोजन सफल नहीं हो सकता। इस कठिनाई को ध्यान में रखते हुए अध्यात्मक विद्या के आचार्यो ने एक उपाय दूसरों द्वारा साधना कार्य में लगा देना और स्थान पूर्ति स्वयं कर देना एक सीधा सदा निर्दोष परिवर्तन हैं किसान अन्न तैयार करता है, और जुलाहा कपड़ा।
जिस प्रकार वकील, डाक्टर, अध्यापक, क्लर्क आदि समय, मूल्य देकर खरीदा जा सकता है, और उस खरीदे हुए समय का मन चाहा उपयोग अपने प्रयोजन के लिये किया जा सकता है, उसी प्रकार किसी ब्रह्म परायण सत्पुरूष को गायत्री-उपासना के लिये नियुक्त किया जा सकता है, इसमें संदेह और अस्थिर चित्त होने के कारण जो कठिनाईयां मार्ग में आती हैं, उनका हल आसानी से हो जाता है।
कार्यव्यस्त और श्रीसम्पन्न धार्मिक मनोवृत्ति के लोग बहुधा अपनी शांति, सुरक्षा और उन्नति के लिये गोपाल सहस्रनाम, विष्णु सहस्रनाम, महामृत्युंजय, दुर्गासप्तशती, शिव महिमा, गंगा लहरी आदि कीजिये कि ‘यह दिव्य प्राण मेरे पापों का नाश करता हुआ विदा हो रहा है, वायु को निकालने में प्रायः उतना ही समय लगाना चाहिये जितना कि वायु खींचने में लगाया था।
जब भीतर की सब वायु बहार निकल जाये तो जितनी देर वायु को भीतर रोक रखा था, उतनी ही देर बाहर रोके रखें, अर्थात् बिना सांस लिये रहें और ‘धियों यो नः प्रचोदयात्’ इस मंत्र भाग को जपते रहें। साथ ही भावना करें कि भगवती वेदमाता आद्यशक्ति गायत्री सद्बुद्धि को जागृत कर रही हैं। यह एक प्राणायाम हुआ।
अब इसी प्रकार पुनः इन क्रियाओं की पुनरूक्ति करते हुए दूसरा प्राणायाम करें। सन्ध्या में यह पांच प्राणायाम करने चाहिये, जिससे शरीर में स्थित प्राण, अपान, व्यान, समान, उदार नामक प्राचार्यों, प्राणों का व्यायाम, स्फुरण और परिमार्जन हो जाता हैं।
(4) अघमष्रण- अघमकर्षण कहते हैं पाप के नाश करने को। गायत्री की पुण्य भावना के प्रेवेश करने से पाप का नाश होता हैं प्रकाश के आवागमन के साथ अन्धकार नष्ट हो जाता हैं, पुणय संकल्पों के उदय के साथ साथ ही पापों का संहार भी होता हैं बल-बुद्धि के साथ-साथ निर्बलता का अन्त हो चलता हैं ब्रह्म सन्ध्या की बाह्मी भावनायें हमारे अघ का मर्षण करती रहती हैं।
अघमर्षण के लिए दाहिने हाथ की हथेली पर जल लेकर उसे दाहिने नथुने के समीप ले जाना चाहिये। समीप का अर्थ हैं- छः अंगुल दूर। बायेंं हाथ के अंगूठे से बायां नथुना बन्द कर लें और दाहिने नथुने से धीरे धीरे सांस खींचना आरम्भ करें। सांस खींचते समय ऐसी भावना करें कि गायत्री माता का पुण्य प्रतीक यह जल अपनी दिव्य शक्तियों सहित पापों का संहार करने क लिये सांस के साथ मेरे अन्दर प्रवेश कर रहा हैं, और भीतर से पापों का मलों का, विकारों का संहार कर रहा हैं।
जब पूरी सांस खीच चुके तो बाया नथुना खेल दें, और दाहिना नथुना अंगूठे से बन्द रखें और सांस बाहर निकालना आरम्भ करें। दाहिनी हथेली पर रखे हुए जल को अब बायें नथुने के सामने करेंओर भावना करें कि ‘नष्ट हुए पापों की लाशों का सूमह सांस के साथ बाहर निकलकर इस जल में गिर रहा हैं’ जब सांस पूरी तरह बाहर निकल जाय तो उस जल को बिना देखे घृणापूर्वक बांई ओर पटक देना चाहिये।
अघमर्षण क्रिया से जल कोहथेली में भरते समय ‘ऊँ भूर्भुवः स्वः’ दाहिने नथुने से सांस खींचते समय ‘तत्सवितुर्वरेण्यं’ इतना मंत्र भाग जपना चाहियें और, बायें नथुने से सांस छोड़ते समय ‘भर्गोदेवस्य धीमहि’ और जल पटकते समय ‘धियों यो नः प्रयोदयात्’ इस मन्त्र का उच्चारण करना चाहिये। यह क्रिया तीन बार करनी चाहिये जिससे काया के प्राण के और मन के त्रिविध पापों का संहार हो सके।
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