पिछले लगभग बीस-तीस वर्षों से प्रतिस्पर्धा का माहौल होने से हमारे जीवन में तनाव काफी बढ़ गया है। इससे मानसिक अवसाद और इससे शारीरिक व्याधियाँ हमें परेशान कर रही है। वास्तुशास्त्र चूँकि प्रकृति से सम्बंधित है, अतः इसके द्वारा हम अपने जीवन में भौतिक उपलब्धियाँ के साथ ही शारीरिक स्वस्थ्यता और मानसिक प्रबलता प्राप्त कर सकते हैं। लेकिन इसके लिये यह आवश्यक है कि हमें वास्तुशास्त्र और ज्योतिष की गहरी समझ हो। वास्तुशास्त्र के प्रचलित सिद्धांतों के बारे में पाठक बहुत सा साहित्य पढ़ चुके हैं। यहाँ मैं कुछ अनछूए पहलुओं के बारे में बताऊँगा, जिन पर वास्तुशास्त्र का मूलाधार टिका है।
पहली बात तो यह कि एक अच्छे वास्तुशास्त्री को परिपक्व ज्योतिषी होना बहुत आवश्यक है। यदि आपने ज्योतिष के अध्ययन में बीस-तीस वर्ष नहीं लगाएँ हैं तो आप वास्तु के सिद्धांतों के मर्म को तनिक भी नहीं समझ सकते हैं। क्योंकि सभी गूढ़ विद्याएँ ज्योतिष की ही शाखाएँ हैं। इनका स्वतंत्र या पृथक अस्तित्व नहीं है। आज जनमानस में जो वास्तु के सिद्धांत प्रचलित हैं। उन्हें आप एक ही दिन में याद कर सकते हैं। क्या इस प्रकार की सम्पूर्णता से आप संतुष्ट हैं। निश्चित ही यह वास्तुशास्त्र की आत्मा से साक्षात्कार नहीं है। हमारे वैदिक ऋषि-मुनियों द्वारा आविष्कारित वास्तुशास्त्र इस रूप में शायद कभी प्रचलित नहीं रहा होगा।
किसी भी परिसर के निरीक्षण से पूर्व या बाद में परिसर के स्वामी की हस्तरेखाएँ या जन्म पत्रिका अवश्य देखनी चाहिये। यह बहुत आवश्यक है। यदि आपके परिसर में साधारण वास्तुदोष है तो आपके जीवन पर उसका विशेष प्रभाव दृष्टि गोचर नहीं होगा, क्योंकि जब तक आपके गोचर ग्रहों की स्थिति, जन्म कुण्डली में दशा-महादशा आपके अनुकूल है, तब तक वास्तु का साधारण दोष प्रभावी नहीं होगा। यहाँ तक सम्भव है कि भाग्य ठीक होने पर गम्भीर वास्तुदोष भी अपना दुष्प्रभाव स्थगित कर दे।
उपरोक्त के सम्बंध में महत्वपूर्ण बात यह होगी कि किसी भी वास्तुदोष के परिणामों के बारे में निर्णय आप किस आधार पर कर रहे हैं। उदाहरण के लिये आमतौर पर यह समझा जाता है कि ईशान कोण (उत्तर-पूरब) में भूमिगत वाटरटैंक होना चाहिये। लेकिन ऐसा क्यों होना चाहिये, इस प्रश्न का उत्तर प्राप्त करना जरूरी है। आमतौर पर वास्तुशास्त्र की चर्चा होने पर हमारे मस्तिष्क में एक परिसर की छवि कौंध जाती है। अग्नि कोण में बनी रसोई, वायव्य में मेहमान कक्ष, ईशान में पूजा कक्ष आदि-आदि। कुछ चिरपरिचित सिद्धांतां पर हमारा ध्यान केन्द्रित हो जाता है। सामान्यतया जनसाधारण में वास्तुशास्त्र की यही छवि गढ़ी गई है। लेकिन वास्तुशास्त्र इनसे पृथक है। यह सब भी वास्तुशास्त्र के सैद्धान्तिक रूप है। लेकिन हम इन सिद्धांतों के आधार पर वास्तुशास्त्र की सम्पूर्णता या प्रामाणिकता सिद्ध नहीं कर सकते हैं। वास्तु मूलतः प्रकृति पर आधारित विज्ञान है।
जिस प्रकार हमारे शरीर के आंतरिक अंगों में कोई रोग हो तो उसके परिणाम हमेशा गंभीर हो सकते हैं। उसी प्रकार से हमने जिस भूखण्ड का चयन आवांटन या व्यावसायिक परिसर के लिये किया है। उसमें यदि वास्तु दोष हो तो उसमें वास्तुशास्त्रानुसार निर्मित निर्माण भी अशुभ फल ही देगा। इसलिये किसी भी परिसर की वास्तविक और शुभाशुभ स्थिति के निर्णय के लिये उसके भूखण्ड की जाँच होना आवश्यक है। भूमि को देखने, सूँघने और उसके वर्ण के आधार पर उसके शुभ या अशुभ का पता लगाया जाता है। यदि भूमि में कोई दोष होगा तो उसमें बना परिसर अनिष्टकारी सिद्ध होगा।
कुछ मामलों में परिसर में किसी प्रकार का वास्तुदोष नहीं होता है। लेकिन फिर भी उसमें निवास करने वाले पूर्ण उन्नति नहीं कर पाते हैं। इसके लिये बहुत बार परिसर के आस-पास की स्थिति और बनावट भी परिसर में गंभीर वास्तुदोष उत्पन्न कर सकती है। सामान्यतया पीपल या बड़ का वृक्ष, जल स्थान, सार्वजनिक परिसर जैसे धर्मशाला, विद्यालय मंदिर आदि भी भूखण्ड के पास होने से भूखण्ड पर अच्छा या बुरा (स्थिति अनुसार) फल प्राप्त होता है। मंदिर यदि भूखण्ड की सही दिशा में न हो तो बहुत बुरा फल मिलता है।
हमारी पृथ्वी प्राकृतिक ऊर्जाओं से परिपूर्ण है। इसमें सूर्य की ऊर्जा, अग्नि की ऊर्जा, हवा की ऊर्जा, पृथ्वी की ऊर्जा, चन्द्रमा की ऊर्जा प्रमुख है। अच्छी खासी भौतिक उन्नति के बावजूद हम पृथ्वी पर उपलब्ध बेशकीमती प्राकृतिक ऊर्जाओं में से केवल सूर्य और वायु की ही ऊर्जाओं को कुछ उपयोग में ले पाएं हैं। पूरी तरह से इन ऊर्जाओं के ठीक-ठीक उपयोग को प्रोत्साहन दिया जाता है, जिससे हम सुखी, समृद्ध और स्वस्थ जीवन व्यतीत कर पाएँ। प्रकृति से प्रदत्त ऊर्जाओं का समन्वय और उपयोग ही वास्तु है। वास्तुशास्त्र के अनुसार इस पृथ्वी पर सकारात्मक और नकारात्मक दो तरह की ऊर्जाओं का संचार होता है। उत्तर और पूरब से आने वाली ऊर्जाएँ सकारात्मक होंगी। जबकि दक्षिण और पश्चिम से आने वाली ऊर्जाएँ नकारात्मक होंगी। हमें सकारात्मक ऊर्जाओं को प्रोत्साहित करना चाहिये। भवन का निर्माण इस प्रकार करना चाहिए कि सकारात्मक ऊर्जाओं का प्रवाह सुचारू हो सके। जबकि निर्माण इस प्रकार भी होना चाहिये कि इसका निर्माण नकारात्मक ऊर्जाओं को परिसर में प्रवेश करने से रोक सके।
उपरोक्त ऊर्जाओं को जीवन में उपयोगी बनाने के लिये वास्तुशास्त्र में पाँच तत्वों का उल्लेख मिलता है। इनके आधार पर और इनके समन्वय से जीवन को समृद्ध बनाने का प्रयास किया जाता है। यदि ये तत्त्व कम या ज्यादा हों तो परिसर में सकारात्मक ऊर्जाओं का आभाव हो जाता है। आकाश, जल, अग्नि, वायु और पृथ्वी ये पाँच तत्त्व हैं।
पंच तत्त्व की ही तरह परिसर में पाँच वधस्थल भी होते हैं। किसी परिसर में नवप्रवेश से पूर्व वास्तुशान्ति करनी चाहिये। यह वास्तु शान्ति इन वध स्थलों से उत्पन्न दोष को नष्ट करती है। चूल्हा, चाकी, झाडू, जलस्थान और ओखली, ये पाँच वधस्थल कहे जाते हैं।
दक्षिण दिशा के प्रति यह भ्राँति फैली हुई है कि दक्षिण दिशा अशुभ है। जब कि वास्तव में समृद्धि और धन की वास्तविक दिशा ही दक्षिण है। दक्षिण में शुक्र का स्थान कहा गया है। जो भोग-विलास और सुख समृद्धि का प्रधान ग्रह है।
दक्षिण-पश्चिम के स्वामी ग्रह राहु और केतु हैं। मूल दक्षिण पर मंगल का अधिकार है। दक्षिण-पूरब पर शुक्र का अधिकार। राहु-केतु, मंगल और शनि के पाप कर्तरी योग के कारण नैऋत्य कोण कुछ हद तक अशुभ कहा जा सकता है। लेकिन दक्षिण में शुक्र की उपस्थिति भौतिकता के लिये महत्वपूर्ण है।
दक्षिण दिशा को अशुभता की श्रेणी में लेने का प्रमुख कारण तो यह है कि दक्षिणामुखी भूखण्डों में निर्माण वास्तु शास्त्रानुसार होते नहीं दिखाई देता है। फिर भी जिन परिसरों का एक द्वार उत्तर में हो तो दक्षिणमुखी दोष नहीं रहेगा। वे परिसर जिनमें महिलाऐं अपनी समाज कल्याण या महिला विकास की योजनाएं चलाती हैं, उनके लिये दक्षिण दिशा विशेष फलदायी पायी गई हैं।
कोई भी दिशा अन्तिम रूप से शुभ या अशुभ नहीं है। यदि ऐसा होता तो उत्तर या पूरब मुखों वाले परिसर-घरों के स्वामी हमेशा के लिये सुखी हो जाते और दक्षिण दिशा के परिसरों में रहने वाले हमेशा के लिये दुःखी और दरिद्र हो जाते। वास्तव में किसी भी परिसर के पूर्ण अवलोकन से ही उसके शुभ या अशुभ होने का निर्णय करना चाहिये। किसी दिशा विशेष से कोई परिसर शुभ या अशुभ नहीं होगा।
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