भाद्रपद कृष्ण अष्टमी को रात के बारह बजे मथुरा नगरी के कारागार में वसुदेव जी की पत्नी देवकी के गर्भ से षोडश कला सम्पन्न भगवान् श्रीकृष्ण का अवतार हुआ था। इस व्रत में सप्तमी सहित अष्टमी का ग्रहण निषिद्ध है –
पूर्वविद्धाष्टमी या तु उदये नवमीदिने।
मुहूर्तमपि संयुक्ता सम्पूर्णा साऽष्टमी भवेत्।।
कलाकाष्ठामुहूर्ताऽपि यदा कृष्णाष्टमी तिथिः।
नवम्यां सैव ग्राह्या स्यात् सप्तमीसंयुता नहि।।
साधारणतया इस व्रत के विषय में दो मत हैं। स्मार्त लोग अर्धरात्रि का स्पर्श होने पर या रोहिणी नक्षत्र का योग होने पर सप्तमी सहित अष्टमी में भी उपवास करते हैं, किंतु वैष्णव लोग सप्तमी का किचिंन्मात्र स्पर्श होने पर द्वितीय दिवस ही उपवास करते हैं। निम्बार्क सम्प्रदायी वैष्णव तो पूर्व दिन अर्धरात्रि से यदि कुछ पल भी सप्तमी अधिक हो तो भी अष्टमी को न करके नवमी में ही उपवास करते हैं। शेष वैष्णवों में उदयव्यापिनी अष्टमी एवं रोहिणी नक्षत्र को ही मान्यता एवं प्रधानता दी जाती है। पूर्ण पुरूषोत्तम विश्म्भर प्रभु का भाद्र पद मास के अंधकारमय पक्ष- कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को अर्धरात्रि के समय प्रादुर्भाव होना निराशा में आशा का संचार-स्वरूप है श्रीमद्भागवत में कहा गया है –
निशीथे तम उद्भूते जायमाने जनार्दने। देवक्यां देवरूपिण्यां विष्णुः सर्वगुहाशयः।
आविरासीद् यथा प्राच्यां दिशीन्दुरिव पुष्कलः।।
अर्थात अर्धरात्रि के समय जबकि अज्ञान रूपी अंधकार का विनाश और ज्ञानरूपी चंद्रमा का उदय हो रहा था, उस समय देवरूपिणी देवकी के गर्भ से सबके अन्तःकरण में विराजमान पूर्ण पुरूषोत्तम व्यापक परब्रह्म विश्वम्भर प्रभु भगवान् श्रीकृष्ण प्रकट हुए, जैसे कि पूर्व दिशा में पूर्ण चंद्र प्रकट हुआ। इस दिन भगवान् का प्रादुर्भाव होने के कारण यह उत्सव मुख्यतया उपवास, जागरण एवं विशिष्ट रूप से श्रीभगवान् की सेवा-श्रृंगारादि का है। दिन में उपवास और रात्रि में जागरण एवं यथोपलब्ध उपचारों से भगवान् का पूजन, भगवत्-कीर्तन इस उत्सव के प्रधान अंग हैं। श्रीनाथ द्वारा और व्रज (मथुरा-वृंदावन) में यह उत्सव बड़े विशिष्ट ढंग से मनाया जाता है।
इस दिन समस्त भारत वर्ष के मन्दिरों में विशिष्ट रूप से भगवान् का श्रृंगार किया जाता है। कृष्णावतार के उपलक्ष्य में गली-मुहल्लों एवं आस्तिक गृहस्थों के घरों में भी भगवान् श्रीकृष्ण की लीला की झाँकियाँ सजायी जाती हैं एवं श्रीकृष्ण की मूर्ति का श्रृंगार करके झूला झुलाया जाता है। स्त्री-पुरूष रात्रि के बारह बजे तक उपवास रखते हैं एवं रात के बारह बजे शंख तथा घंटों के निनाद से श्रीकृष्णजन्मोत्सव मनाया जाता है। भक्तगण मंदिरों में समवेत स्वर से आरती करते हैं एवं भगवान् का गुणगान करते हैं। जन्माष्टमी को पूरा दिन व्रत रखने का विधान है। इसके लिये प्रातःकाल उठकर स्नानादि नित्य कर्म से निवृत्त होकर व्रत का निम्न संकल्प करें –
ऊँ विष्णुर्विष्णुर्विष्णुः अद्य अमुकनामसंवत्सरे सूर्ये दक्षिणायने वर्षर्तौ भाद्रपदमासे कृष्णपक्षे श्रीकृष्णजन्माष्टम्यां तिथौ अमुकवासरे
अमुकनामाहं मम चतुर्वर्गसिद्धिद्वारा श्रीकृष्णदेवप्रीतये जन्माष्टमीव्रतांगत्वेन श्रीकृष्णदेवस्य यथामिलितोपचारैः पूजनं करिष्ये।
इस दिन केले के खम्भे, आम अथवा अशोक के पल्लव आदि से घर का द्वार सजाया जाता है। दरवाजे पर मंगल-कलश एवं मूसल स्थापित करें। रात्रि में भगवान् श्रीकृष्ण की मूर्ति अथवा शालिग्रामजी को विधिपूर्वक पंचामृत से स्नान कराकर षोडशोपचार से विष्णुपूजन करना चाहिये।
‘ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय’ इस मंत्र से पूजन कर तथा वस्त्रांलकार आदि से सुसज्जित करके भगवान् को सुन्दर सजे हुए हिंडोले में प्रतिष्ठित करें। धूप, दीप और अन्न रहित नैवेद्य तथा प्रसूति के समय सेवन होने वाले सुस्वादु मिष्ठान्न, जायकेदार नमकीन पदार्थां एवं उस समय उत्पन्न होने वाले विभिन्न प्रकार के फल, पुष्पों और नारियल, छुहारे, अनार, बिजौरे, पंजीरी, नारियल के मिष्ठान्न तथा नाना प्रकार के मेवे का प्रसाद सजाकर श्रीभगवान् को अर्पण करें।
दिन में भगवान् की मूर्ति के सामने बैठकर कीर्तन करें तथा भगवान् का गुणवान करें और रात्रि को बारह बजे गर्भ से जन्म लेने के प्रतीक स्वरूप खीरा फोड़कर भगवान का जन्म कराये एवं जन्मोत्सव मनाये। जन्मोत्सव के पश्चात् कर्पूरादि प्रज्वलित कर समवेत स्वर से भगवान् की आरती-स्तुति करें, पश्चात् प्रसाद वितरण करें।
जन्माष्टमी हमारे देश का अतिविशिष्ट और सर्व प्रमुख उत्सव है। देश के प्रत्येक अंचल में इसकी पूर्ण प्रतिष्ठा है। बहुधा लोग व्रत में फलाहार करते हैं, किंतु अधिकांश इस व्रत को पूर्ण उपवास से मनाते हैं। जो मनुष्य जन्माष्टमी का व्रत करता है, वह विष्णुलोक को प्राप्त होता है।
इसके द्वितीय दिन (अर्थात् नवमी को) दधिकांदो या (नन्दमहोत्सव) किया जाता है। इस समय भगवान् पर कपूर, हल्दी, दही, घी, जल, तेल तथा केसर आदि चढ़ाकर लोग परस्पर विलेपन तथा सेचन करते हैं। वाद्य यंत्रों से कीर्तना करते हैं तथा मिठाइयाँ बाँटते हैं।
शास्त्रों में भारत भूमि की लोकोत्तर महिमा परिवर्णित है। यहाँ सृष्टि के आरम्भ से ही दीर्घकालिक तपः- स्वाध्याय में निरत मंत्र द्रष्टा ऋषि-महर्षियों ने मानव-जीवन को सदाचारपूर्ण, यम-नियमादि साधन सम्पन्न तथा आदर्शमय बनाने के लिये युगानुसार विविध शास्त्रों की रचना की है। जिनमें व्रत, उपवास, पर्व, उत्सव और यज्ञानुष्ठान आदि के विषय में अन्वय-व्यतिरेकपूर्वक विधि-निषेधों-गुण-दोषों का वर्णन उपलब्ध होता है।
प्रत्येक मास में तिथि, नक्षत्र और वारों के योग से प्रतिदिन किसी-न-किसी देवी-देवता से सम्बंधित व्रत, उपवास एवं पर्व का होना निश्चित रहता है। यहाँ के नित्यव्रतों, नित्योपवासों एवं नित्योत्सवों के कारण इसे महीमंगल भूयिष्ठा कहा गया है। भारत भूमि अनन्तानन्त तीर्थों की भूमि, मनुष्यों की कर्मभूमि, ऋषि-मुनियों की तपोभूमि, धर्माचार्यों की साधन भूमि एवं भगवान् श्रीहरि की अवतार लीला भूमि है।
दिव्य लोकों में अवस्थित देववृन्द भी भारत की महिमा गाते हैं। ‘गायन्ति देवाः किल गीतकानि’ इत्यादि। यहाँ भगवान् के विविध अवतारों में से श्रीकृष्णावतार अर्थात् श्रीकृष्णजन्माष्टमी के सम्बंध में कुछ विचार प्रस्तुत हैं –
इस शास्त्रीय वचन के अनुसार सच्चिदानन्द परब्रह्म परमात्मा सर्वेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण समस्त अवतारों में परिपूर्णतम अवतार माने गये हैं। अचिन्त्य गुण शक्तियुक्त प्रभु दिव्यधाम से सांग सपरिकर भूतल पर अवतीर्ण होते हैं। जैसे एक दीपक से दूसरे दीपक को प्रज्वलित करने पर उसके प्रकाश में किसी प्रकार न्यूनाधिक्य नहीं रहता, उसी प्रकार नित्यविभूति से लीलीविभूति में अवतीर्ण होने पर प्रभु की समस्त गुणशक्तियाँ यथावत् रहती हैं।
इसी को अजहद् गुणशक्ति कहा गया है। युग-युगान्तरों, कल्प-कल्पान्तरों के भक्तों की इच्छा पूर्ण करने के लिये ही श्रीकृष्ण का यह अवतार है। अतः सुदर्शन चक्रावतार आद्याचार्य भगवान् श्रीनिम्बार्क कहते हैं- ‘भक्तेच्छयोपात्तसुचिन्त्यविग्रहात्।’ वह मथुरापुरी धन्य है, जहाँ यदुवंशियों के मध्य वासुदेव-देवकी के पुत्र रूप में जन्म ग्रहण कर भगवान् ने उसे अपनी ऐश्वर्य शक्ति से सदा अपना सांनिध्य प्रदान किया।
मथुरा में प्रकट होने के पश्चात् भक्तवांछा कल्पतरू परमात्मा अपनी अनपायिनी शक्ति योगमाया का आश्रय लेकर वसुदेवजी द्वारा नन्दगोकुल पहुँचने पर नन्द नन्दन यशोदा नन्दन के रूप में प्रकट होते हैं। यहीं से प्रभु ने अपनी माधुर्यलीलाओं का प्रारम्भ किया। मुख्यतया श्री-भू-लीला इन त्रिशक्तियों के माध्यम से ऐश्वर्य, धैर्य एवं माधुर्य-लीलाओं का भूमण्डल में विस्तार किया।
इसीलिये वे लीलापुरूषोत्तम कहलाये और उन्होंने नाम, रूप, लीला एवं धमके ऐक्य से व्रजभूमि को केन्द्र बनाकर वीचीतरंगवत् किंवा जल में तैलवत् समस्त लीलाचारितों को विश्व में परिव्याप्त किया। सगुण-साकार होने पर भी यही लीला व्याप्य-व्यापकता, शक्ति-शक्तिमान् की अभिन्नता को दर्शाती है। सर्वेश्वर में सर्वनियन्तृत्व, सर्वव्यापकत्व, सर्वान्तर्यामित्व आदि भाव भी स्वयंसिद्ध है।
अतएवं भगवान् श्रीकृष्ण में सगुण-साकार, निर्गुण-निराकार अर्थात् सविशेष-निर्विशेष आदि परस्पर विरूद्ध धर्म भी समान रूप से विद्यमान रहते हैं । ‘कर्तुमकर्तुमन्यथाकर्तुं सर्वसमर्थवान् ईश्वरः’ – इस आप्त व्युत्पत्ति से उनमें ईश्वरत्व किंवा सर्वेश्वरत्व स्वतःसिद्ध है। ‘अणोरणीयान् महतो महीयान्’ इत्यादि श्रुतिवचन इसमें प्रमाण हैं।
आनन्द कन्द व्रजेन्द्र नन्दन वृंदावन विहारी सर्वेश्वर श्रीकृष्ण की नित्यनिकुंज लीलाएँ परमाह्लादिनी शक्ति श्रीराधा एवं नित्य सहचारियों के साथ होने से कैशोर भावयुक्त और मधु राति मधुर हैं, अलौकिक एवं दिव्य हैं। व्रजलीलाएँ माधर्य प्रधान ऐश्वर्य लीलाएँ हैं जहाँ माखनचोरी, ऊखल बंधन आदि के साथ दुष्टदमन भी है। मधुरा-द्वारका की लीलाएँ ऐश्वर्य प्रधान माधुर्य लीलाएँ हैं।
ये समस्त लीलाएँ देश, काल, अवस्था से आबद्ध हैं, फिर भी नित्य एवं दिव्य हैं। इन्हीं लीलाओं का गायन, श्रवण, मनन एवं चिन्तन करके रसिक भावुक भक्तजन सदा आनन्द सिन्धु में निमग्न रहते हैं। भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी उन्हीं अजन्ता लीलापुरूषोत्तम श्रीकृष्ण की प्राकट्य अथवा जन्मतिथि होने से श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के नाम से सुविख्यात है।
इस दिन व्रजक्षेत्र के अतिरिक्त देश के सभी राज्यों, महानगरों और नगरों तथा ग्रामों में यह महोत्सव बड़े उल्लास एवं धूम-धाम से मनाया जाता है। साथ ही विदेशों में भी परम उत्साह से यह उत्सव मनाते हैं। अ0भा0 श्री निम्बार्काचार्यपीठ निम्बार्कतीर्थ सलेमा बाद में यह महोत्सव शताब्दियों से परम्परागत रूप में विविध कार्यक्रमों के साथ दस दिवसीय महोत्सव के रूप में बड़े धूम-धाम से सम्पन्न होता है।
अष्टमी की रात्रि को तीन आरतियों के अनूठे दर्शन होते हैं। दूसरे दिन नन्दमहोत्सव, दधिकांदो, मल्लखम्भ, तैराकी प्रतियोगिता आदि के साथ महोत्सव पूर्ण होता है। श्रीकृष्ण जन्माष्टमी जहाँ एक ओर उत्सव-महोत्सव का महान् पर्व है, वहीं दूसरी ओर व्रत-उपवास का परम पावन दिवस है।
अखिल ब्रह्माण्ड नायक, अनन्तकल्याण गुण गणनिलय, अपास्त समस्त दोषपुंज , निखिलजगद भिन्न निमित्तो पादान कारण, क्षराक्षरातीत, ब्रह्माशिव वन्दितचरण, परब्रह्म परमात्मा भगवान् सर्वेश्वर श्रीकृष्ण का यह प्राकट्य महोत्सव प्रतिवर्ष भाद्रपद कृष्ण पक्ष की अष्टमी को आता है।
कहीं इसे श्रावण कृष्ण अष्टमी की संज्ञा दी गयी है, क्योंकि ज्योतिषशास्त्र में शुक्ल प्रतिपदा से अमावास्या पर्यंत एक पक्ष है जो गुजरात एवं दक्षिण भारत में प्रायः प्रचलित है। एक अन्य पक्ष जो कृष्ण प्रतिपदा से पूर्णिमा पर्यान्त का मास स्वीकार करता है वह उत्तर भारत में मान्य है। अतः शास्त्रों में उभसविध वचनों – श्रावण कृष्णाष्टमी और भाद्रकृष्णाष्टमी का जो उल्लेख है, वह देशान्तर के भेद से समझना चाहिये, शास्त्र वचनों का परस्पर विरोध् नहीं है।
भगवान् विष्णु वसुदेव जी से देवकी के पुत्र रूप में कंसासुर का वध करने के लिये प्रकट हुए हैं। जिस दिन प्रभु का अवतरण हुआ वह दिन परम मंगलमय है। वह जो श्रावण कृष्ण अष्टमी (भाद्रपद कृष्णाष्टमी) प्रतिवर्ष आती है, उस समय यदि रोहिणी नक्षत्र का योग हो तो वह तिथि मनुष्यों के लिये मोक्षदायिनी हो जाती है। जिस तिथि में साक्षात् सनातन पुराणपुरूषोत्तम प्रभु भूतल पर अवतीर्ण हुए हैं वह तिथि मुक्तिदायिनी है तो इसमें कौन-सी आश्चर्य की बात!
य एष भगवान् विष्णुर्देवक्यां वसुदेवतः। जातः कंसवधार्थं हि तद्दिनं मंगलायनम्।।
या सा प्रत्यब्दमायाति श्रावणे बहुलाऽष्टमी। संगता द्रुहिणर्क्षेण नृणां मुक्तिफलप्रदा।।
यस्यां सनातनः साक्षात्पुराणः पुरूषोत्तमः। अवतीर्णः क्षितौ सैषा मुक्तिदेति किमद्भुतम्।।
इस प्रकार गौमती तंत्र में कहा गया है –
अथ भाद्रासिताष्टम्यां प्रादुरासीत् स्वयं हरिः। ब्रह्माणा प्रार्थितः पूर्वं देवक्यां कृपया विभुः।।
रोहिण्यर्क्षे शुभतिथौ दैत्यानां नाशहेतवे। महोत्सवं प्रकुर्वीत यत्नतस्तद्दिने शुभे।।
रान्यैर्ब्राह्मणैर्वैश्यैः शूद्रैश्चैव स्वशक्तितः। उपवासः प्रकर्तव्यो न भोक्तव्यं कदाचन।।
कृष्णजन्मदिने यस्तु भु3्क्ते स तु नराधमः। निवसेन्नर के घोरे यावदाभूत सम्प्लवम्।।
अष्टमी रोहिणीयुक्ता चार्धरात्रे यदा भवेत्। उपोष्य तां तिथिं विद्धान् कोटियज्ञफलं लभेत।।
सोमह्नि बुधवारे वा अष्टमी रोहिणीयुता। जयन्ती सा समाख्याता सा लभ्या पुण्यसंचयैः।।
तस्यामुपोष्य यत्पापं लोकः कोटिभवोद्भवम्। विमुच्य निवसेद् विप्र वैकुण्ठे विरज पुरे।।
अर्थात् भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को पूर्वकाल में स्वयं श्रीहरि ब्रह्मादि देवों की प्रार्थना पर दैत्यों के विनाश हेतु रोहिणी नक्षत्र युक्त शुभ तिथि में माता देवकी के उदर से अनुग्रह पूर्वक प्रकट हुए। स्वयं प्रभु अपरिच्छिन्न होते हुये भी अपनी अद्भुत मायाशक्ति का आश्रय लेकर परिच्छिन्न स्वरूप सामान्य बालक की तरह क्रीड़ा करने लगे। अतः ऐसे शुभ दिन में चारों वर्ण-ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्रों द्वारा अपनी शक्ति के अनुसार यत्नपूर्वक प्रभु का जन्ममहोत्सव सम्पन्न करना चाहिये और उपवास करना चाहिये।
जब तक उत्सव सम्पन्न न हो तब तक भोजन नहीं करना चाहिये। जो मनुष्य श्रीकृष्ण जन्मोत्सव के अवसर पर भोजन करता है वह तो नराधम कहलाता है। जब तक यह सृष्टि अवस्थित रहे उतने समय तक उसे घोर नरक में निवास करना पड़ता है। अर्धरात्रि के समय यदि अष्टमी रोहिणी नक्षत्र से युक्त हो जाय तो उस तिथि में किया गया उपवास करोड़ों यज्ञों का फल देने वाला होता है। भाद्रपद कृष्णाष्टमी यदि रोहिणी नक्षत्र और सोम या बुधवार से संयुक्त हो जाय तो वह जयंती नाम से विख्यात होती है। जन्म-जन्मान्तरों के पुण्य संचय से ऐसा योग प्राप्त होता है।
इस प्रकार जिस मनुष्य को जयंती-उपवास का सौभाग्य मिलता है, उसके कोटिजन्मकृत पाप नष्ट हो जाते हैं तथा जन्मबन्धन से मुक्त होकर वह परम दिव्य वैकुण्ठादि भगवद्धाम में निवास करता है।श्रीकृष्ण जन्माष्टमी रोहिणी नक्षत्र योग रहित हो तो ‘केवला’ और रोहिणी नक्षत्रयुक्त हो तो ‘जयंती’ कहलाती है। जयंती में बुध-सोम का योग आ जाय तो वह अत्युत्कृष्ट फलदायक हो जाती है। ऐसा योग अनेक वर्षों के बाद सुलभ होता है।
जन्माष्टमी केवला और दयंती इस शब्दभेद से इन दोनों में क्या अत्यंत भेद है? या जन्माष्टमी ही गुणवैशिष्ट्य से जयन्ती कही जाती है। इसका समाधान करते हुए शास्त्रकार कहते हैं-केवलाष्टमी और जयंती में अत्यंत भिन्नता नहीं है, क्योंकि अष्टमी में व्रत-उपवास किया ही जाता है, किंतु तिथि-योग के बिना रोहिणी में किसी प्रकार का स्वतंत्र व्रत-विधान नहीं है।
अतः श्रीकृष्ण जन्माष्टमी ही रोहिणी के योग से जयंती बनती है। एतदर्थ कहा गया है कि रोहिणी-गुण विशिष्टा जयंती। विशेष सामान्य से पृथक् नहीं रहता। अष्टमी जयंती में पशुत्व गोत्व की तरह सामान्य-विशेषकृत मात्र भेद है। विष्णु रहस्य में कहा गया है – अष्टमी कृष्णपक्षस्य रोहिणीऋक्षसंयुता। भवेत्प्रौष्ठपदे मासि जयंती नाम सा स्मृता।। अर्थात् भाद्र पद मास में कृष्ण पक्ष की अष्टमी यदि रोहिणी नक्षत्र से संयुक्त होती है तो वह जयंती नाम से जानी जाती है।
सर्वप्रथम गुरूदेव के समीप जाकर प्रणतिपूर्वक प्रार्थना करे-‘गुरूदेव! श्रीकृष्ण जन्माष्टमी व्रत का नियम पूर्वक मुझे उपदेश कीजिये।’ तब कृपालु गुरूदेव जिस रूप में बतायें वैसा नियम धारण कर प्रार्थना करें – ‘हे पुण्डरीकाक्ष प्रभो! आपके चरण कमल ही मेरे एक मात्र अवलम्ब हैं। आज जन्माष्टमी के दिन निराहार रहकर दूसरे दिन पूजोत्सवपूर्वक पारायण करूँगा।’ ऐसी प्रतिज्ञा कर मध्याह्न में जपादि पूर्ण कर कलश-स्थापन करे।
उस पर पुत्रवत्सला माता की गोद में क्रीडारत और स्तनपान करते हुए स्वरूपवाली स्वर्ण, रजत या ताम्रनिर्मित प्रतिमा को सुसज्जित रूप में अभिषेक पूर्वक विराजमान करें । हाथ में पुष्प, तुलसीदल लेकर आवाहन कर आसन प्रदान करें और कहें- ‘हे जगत्पते! हे जगन्नाथ! हे पुरूषोत्तम! अपने पार्षदों एवं भगवती देवीसहित वैकुण्ठ से अवतरित होकर यहाँ पर विराजें।’ इस प्रकार सपरिवार प्रभु को आसन देकर षोडशोपचार विधि से पूजा-अर्चना करे। पंचामृत एवं दुग्धाभिषेक के साथ माता देव की सहित श्रीबाल कृष्ण को विविध श्रह्नगारादिक वस्तुओं से विशेष रूप से अलंकृत करें। विशेषार्ध्य प्रदानपूर्वक धूप, दीप, नैवद्ये नीराजन पर्यंत सेवासम्पादन करके पुष्पांजलि अर्पण करें। आचार्य और विप्रजनों को दान-दक्षिणा देकर पारण करें।
पारण- पारण के लिये शास्त्रों में दोनों वचन मिलते हैं –
‘तिथ्यन्ते पारणम्, उत्सवान्ते पारणम्।’ तिथ्यन्ते चोत्सवान्ते च व्रती कुर्वीत पारणम्।
वायुपुराण में कहा गया है – यदि समस्त पापों को समूल नष्ट करना चाहे तो उत्सवान्त में भगवत्प्रसादान्न का भक्षण करें। उत्सव सम्पन्न करके विद्वानों को पारण करना चाहिये। परस्पर विनोद के साथ हरिद्रा मिश्रित दधि-तक्रादि का लेप करें और मक्खन, मिश्री, फल-प्रसाद, वस्त्रादि वस्तुओं के निक्षेपपूर्वक हर्ष मनाये। तदनन्तर वैष्णवजनों को भोजन कराकर स्वयं भोजन करे। इस विधि से जो नर-नारी जन्माष्टमी-व्रत को सम्पन्न करते हैं, वे अपने कुल की 21 पीढ़ियों का उद्धार करते हैं।
सब पुण्यों को देने वाला जन्माष्टमी व्रत करने के बाद कोई कर्तव्य अवशेष नहीं रहता। व्रतकर्ता अन्त में अष्टमी व्रत के प्रभाव से भगवद्धाम को प्राप्त होता है। वर्षा-कालोद्भव पुष्पों से श्रीसर्वेश्वर श्रीकृष्ण का जो अर्चन करते हैं, वे मनुष्य नहीं देव हैं अर्थात् देवगण भी उनका वन्दन करते हैं ।
जन्माष्टमी पर्व के सम्बंध में भगवान् श्रीकृष्ण द्वारा धर्मराज युधिष्ठिर को उपदिष्ट कथानक जो भविष्य पुराणान्तर्गत वर्णित है, उसका यहाँ संक्षेप में उल्लेख किया जा रहा है – महाराज युधिष्ठिर ने देवकी नन्दन भगवान् श्रीकृष्ण से पूछा-‘हे अच्युत! आप कृपा करके मुझे जन्माष्टमी-व्रत के विषय में बतायें कि किस काल में उसका शुभारंभ हुआ और उसकी विधि क्या है तथा उसका पुण्य क्या है?’
धर्मराज की भावना के अनुसार प्रभु ने कहा-महाराज! मथुरा में रंग के मध्य मल्ल युद्ध पूर्वक जब हमने अनुयायियों सहित दुष्ट कंसासुर को मार गिराया तब वहीं पर पुत्रवत्सला माता देवकी मुझे अपनी गोद में भरकर मुक्तकण्ठ से रोने लगीं। उस समय रंगमंच में विशाल जनसमूह उपस्थित था। मधु, वृष्णि, अन्धकादि वंश के लोगों और उनकी स्त्रियों से माता देवकी जी घिरी हुई थीं। सब लोग अत्यंत स्नेह भरी दृष्टि से देख रहे थे। पिता श्रीवसुदेव जी भी वहाँ उपस्थित हो वात्सल्य भाव से पूर्ण होकर रोने लगे। वे बार-बार बलदाऊ सहित मुझे हृदय से लगाकर है पुत्र! हे पुत्र! कहकर पुकारने लगे, उनके नेत्र आनन्दाश्रुपूर्ण थे, उनके कण्ठ से वाणी निकल नहीं पा रही थी। गद्गद स्वर में अत्यंत दुःखित भाव से वे कहने लगे- आज मेरा जन्म सफल हो गया, मेरा जीवित रहना सार्थक हुआ, जो कि दोनों पुत्रों से मेरा समागम हो गया।
इस प्रकार परम हर्ष के साथ उन दम्पति के सौभाग्य की प्रशंसा करते हुए वहाँ उपस्थित यदुवंश के सभी महानुभाव प्रणति पूर्वक मुझसे कहने लगे – हे जनार्दन! आज हमें महान् हर्ष हो रहा है, मल्लयुद्ध द्वारा आप दोनों भाइयों ने दुष्ट कंस को उसके परिवार-परिकरों सहित यमलोक पहुँचा दिया। हे मधुसूदन! मधुपुरी में ही क्या, समस्त लोकों में महान् उत्सव हो रहा है।
प्रभो! हमारे ऊपर आप और भी ऐसा अनुग्रह कीजिये-जिस तिथि, दिन, घड़ी, मुहूर्त में आपको माता देवकी ने जन्म दिया, उसे बताने की कृपा करें कि वह कौन-सा दिन है? उसमें हम सब आपका जन्मोत्सव मनाना चाहते हैं । हे केशव्! हे जनार्दन! हम सब सम्यक् भक्ति भाव से संवलित हैं, अवश्य कृपा करें। वहाँ समुपस्थित जनसमुदाय द्वारा इस प्रकार भाव व्यक्त करने पर पिता श्रीवसुदेवजी भी परम विस्मित हो रहे थे। बार-बार श्रीबलभद्र को और मुझको देखते हुये उनके आनन्द की कोई सीमा न थी, अंग-अंग पुलकायमान हो रहा था।
पूज्य पिताश्री ने कहा – ‘वत्स! समुपस्थित जनसमुदाय के प्रार्थनानुसार जन्माष्टमी व्रत का यथावत् निर्देश देकर सबका मान रखो।’ तब मैंने पिताश्री की आज्ञा से मधुपुरी में जनसमूह के समक्ष जन्माष्टमी-व्रत का सम्यक् प्रकार से वर्णन किया। हे पृथानन्दन! आपसे भी वही सब कह रहा हूँ। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और अन्य सभी जन जो धर्म में आस्था रखने वाले हैं वे जन्माष्टमी-व्रत का अनुष्ठान करके अपने अभीष्ट की सिद्धि प्राप्त कर लें, एतदर्थ इसे प्रकाशित किया।
भगवान् श्रीकृष्ण कहने लगे – ‘हे भक्तवृन्द! भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि बुधवार एवं रोहिणी नक्षत्र के शुभ योग में अर्धरात्रि के समय वसुदेवजी से देवकी में मैं प्रकट हुआ, उस समय चंद्रमा वृष राशि में अवस्थित थे जो उनका उच्च स्थान है। माता देवकी के अंग में अवस्थित बाल स्वरूप का चिन्तन करते हुये मेरा जन्म-महोत्सव यथाविभव सम्पन्न करना चाहिये।’
हे धर्मनन्दन! इस प्रकार मेरे कथनानुसार मथुरावासियों ने प्रथम बार जब महान् समारोह के साथ जन्माष्टमी-व्रत-उपवास आदि विधिवत् सम्पन्न किया, तब आगे चलकर लोक में सर्वत्र जन्माष्टमी-व्रत का प्रचार-प्रसार हुआ। भगवान् के श्रीमुख से जन्माष्टमी-व्रत की परम्परा एवं विधि श्रवण कर महाराज युधिष्ठिर कृतकृत्य हो गये। उन्होंने हस्तिनापुर में यह महोत्सव प्रतिवर्ष सम्पादित किया। इस प्रकार भगवान् श्रीकृष्ण का प्राकट्यमहोत्सव-श्रीकृष्ण जन्माष्टमी के विषय में यथामति शास्त्रोक्त रीति से विचार प्रस्तुत किये गये।
Tags: 2022, janmashtami, janmashtmi 2022 vrat, katha, upwas