शुभ चिन्ह स्वास्तिक

शुभ चिन्ह स्वास्तिक

सनातन संकृति में प्रत्येक पूजा के समय सर्वप्रथम लाल रोली से शुभ चिन्ह स्वास्तिक बनाया जाता है। आपने स्वास्तिक चिन्ह के प्रयोग को अनेकों बार देखा होगा। इसके बारे में जानने की उत्सुकता भी मन में उत्पन्न हुई होगी कि इस शुभ चिन्ह की वास्तविकता क्या है? और इसका प्रयोग द्वार के दोनों तरफ या तिजोरी, बहीखाता, जन्म पत्रिका, पासबुक और मांगलिक कार्यों में क्यों होता है।

स्वास्तिक हमारी सनातन परंपरा में रचा बसा है, और यह परम कल्याणकारी माना जाता है। यह सनातन धर्म में ही नहीं बल्कि अन्य धर्मों में भी शुभ लाभ तत्व का प्रतीक माना जाता है। स्वास्तिक चिन्ह के बिना कोई भी शुभ या मांगलिक कार्य अधूरे रह जाते हैं। इनकी चार आकर्षक समभुजायें शक्ति, प्रगति, प्रेरणा और सौंदर्य का प्रतीक हैं, जिससे मनुष्य सुख और सम्पन्नता प्राप्त करता है।

ऋग्वेद की एक ऋचा में यह सूर्य का प्रतीक माना गया है। सामवेद की अंतिम ऋचा में खगोल विज्ञान ने तो इसे सप्तऋषियों से सम्बंधित बताया है, जो स्वास्तिक के चित्र में दृष्टिगोचर हैं।

नक्षत्र विज्ञान के अलौकिक सम्बंध के अनुसार 27 नक्षत्रों का मध्यवर्ती तारा चित्रा है, तैत्तिरीय शाखा में, जिसका स्वामी इंद्र है, वही इस मंत्र में प्रथम निर्दिष्ट है। मंत्र में वृद्धश्रवा विशेषण इसके तारा सन्निवेश रूपाकार के कारण दिया गया है। चित्रा नक्षत्र के ठीक अर्द्धसमानान्तर 150 अंश पर रेवती नक्षत्र है, जिसका देवता पूषा है। नक्षत्र विज्ञान में अंतिम नक्षत्र होने के कारण मंत्र में विश्व वेदाः अर्थात् सर्वज्ञान युक्त कहा गया है। मध्य से 90 अंश की दूरी पर तीन ताराओं से युक्त श्रवण नक्षत्र है, जिसके लिये इस मंत्र में तार्क्ष्य शब्द का प्रयोग हुआ है।

इसके अर्धान्तर पर तथा रेवती से चतुर्थांश 190 अंश की दूरी पर पुष्य नक्षत्र है। पुष्य नक्षत्र के स्वामी बृहस्पति हैं, जो इस मंत्र के चतुर्थ पाद में निर्दिष्ट है। इस प्रकार ऋषियों-मुनियों ने इस प्रकार बड़ी सरलता से इस मंत्र में दर्शाता है, वह सम्पूर्ण खगोल को पुष्य, चित्रा, श्रवण तथा रेवती 90-90 अंश के चार समानान्तर विभागों में विभाजित किया है, और परम ब्रह्म से प्रार्थना की है कि चारों दिशाओं के स्वामी देवता हमारा कल्याण करें। इस प्रकार समझा जाये तो स्वास्तिक चिन्ह का सम्बंध सप्तऋषियों (अंगिरा, मरीचि, अत्रि, पुलस्त्य, पुलह, वशिष्ठ तथा कृतु) से है।

स्वास्तिक का वैज्ञानिक आधार

1-गणितीय धरातल:- स्वास्तिक चिन्ह की बनावट गणित प्लस (धन) अर्थात् योग चिन्ह जैसी है। विज्ञान के अनुसार सकारात्मक तथा नकारात्मक, दो अलग-अलग शक्ति प्रवाहों के मिलने या जुड़ने को प्लस (धन) कहा जाता है जो नवीन शक्ति की ऊर्जा का श्रोत है। फलतः स्वास्तिक चिन्ह का यह अपभ्रंश स्वरूप सम्पन्नता व वृद्धि का प्रतीक है।

2. शिवशक्ति का प्रतीक:- शिवलिंग की आड़ी रेखा विश्व के विस्तार को दर्शाती है और स्वास्तिक की खड़ी रेखा ज्योतिर्लिंग का संकेत है। इस प्रकार स्वास्तिक चिन्ह का सम्बंध सृष्टि विस्तार से हुआ, क्योंकि शिव व शक्ति के संयोग से ही सृष्टि का विकास सम्भव हुआ है।

3. सौभाग्य का प्रतीक:- स्वास्तिक अर्थात् सभी दिशाओं के सौरभ से मानव जगत का कल्याण हो पद्म पुराण में वर्णित चातुर्मास के स्वास्तिक वृत बहुत सी विवाहित स्त्रियाँ करती हैं। वे मन्दिर में अष्टदल से स्वास्तिक बनाकर नित्य उसका पूजन करती हैं जिससे उन्हें वैधव्य का भय समाप्त हो जाता है ‘सु’ उपसर्ग पूर्वक अस धातु से स्वास्तिक शब्द बना है ‘सु’ अर्थात् कल्याणमय, अच्छा, मंगल, श्रेष्ठ और अस् अर्थात् सत्ता, अस्तिव। स्वास्तिक अर्थात् कल्याणकारी सत्ता, अर्थात् जहाँ-जहाँ स्वास्तिक चिन्ह की भावना, सौंदर्य एवं व्यवहार का सौहार्द, सुख-सौभाग्य व सम्पन्नता की विद्यमानता है।

4. भगवान विष्णु व श्री का प्रतीक:- स्वास्तिक की चार भुजायें भगवान विष्णु के चार हाथ हैं। भगवान विष्णु को सृष्टि के पालनपोषक का पद परमात्मा ने दिया है। वे अपनी चारों भुजाओं से चारों दिशाओं की रक्षा करते हैं तथा समाज के चारों वर्णों ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र का पालनपोषण करते हैं। अतः स्वास्तिक का मध्य बिन्दु नाभिकमल, ब्रह्म का स्थान है। अर्थात् स्वास्तिक भगवान विष्णु एवं धन-दौलत की स्वामिनी, विष्णु पत्नी देवी लक्ष्मी जी का भी चिन्ह है।

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