आयुर्वेद-शास्त्र की गणना उपवेदों में है। महर्षि शौनकरचित ‘चरणव्यूह’ ग्रन्थ में इसे ऋग्वेद का तथा ‘सुश्रुत’ में अथर्ववेद का उपवेद बतलाया गया है। इसमें आयु के संरक्षण एवं उसकी वृद्धि के विविध उपाय वर्णित हैं। श्रीरामदूत श्रीहनुमानजी शास्त्रों में अमर माने गये हैं। शास्त्रों में आठ चिरंजीवियों का वर्णन मिलता है, जिनमें श्रीहनुमानजी का एक प्रमुख स्थान है। हनुमानजी के अमर होने में एक कारण श्री सीताजी के द्वारा उन्हें दिया हुआ वरदान भी है। रामचरितमानस में ऐसा उल्लेख है – ‘अजर अमर गुननिधि सुत होहू।’ दूसरा कारण उनका ब्रह्मचर्यव्रत पालन है, जिसके संबंध में शास्त्रों का मत है- ‘मरणं विन्दुपातेन जीवनं विन्दुधारणात्’। इसके अतिरिक्त ज्ञानियों में अग्रगण्य श्रीहनुमानजी आयुर्वेद के भी उत्तम ज्ञाता हैं, अतः उसका भी उपयोग कर उन्होंने अपने को चिरंजीवी बना लिया है। रामचरितमानस में आया है कि जब लक्ष्मणजी को ब्रह्मशक्ति लग जाती है, तब भगवान् श्रीराम् हनुमानजी को ही ‘सुषेण’ वैद्य को बुलाने के लिए भेजते हैं; क्योंकि वे इस बात से भलीभांति परिचित हैं कि, हनुमानजी महान् ज्ञानी और आयुर्वेद के ज्ञाता हैं, अतः ये ही इस कार्य के योग्य हैं।
तत्पश्चात् वैद्यराज सुषेण एवं भगवान् श्रीराम ‘संजीवनी- बूटी’ के आनयनार्थ भी हनुमानजी को ही भेजते हैं। इन दो उदाहरणों से यह बात सिद्ध हो जाती है कि हनुमानजी का औषधि-विज्ञान से विशेष संबंध है। पवनकुमार हनुमानजी ग्यारहवें रुद्र के अवतार हैं, तथा पवन-पुत्र होने के कारण उनका वायु से भी घनिष्ठ संबंध है।
एकादश रुद्रों के संबंध में शास्त्रों का एक मत यह भी है कि आत्मा सहित दसों वायु- (1) प्राण, (2) अपान, (3) व्यान, (4) समान, (5) उदान, (6) देवदत्त, (7) कूर्म, (8) कृकल, (9) धनंजय और (10) नाग। इन वायुओं पर जो विजय प्राप्त कर लेता है, वह योगी प्राणवायु को ब्रह्माण्ड में स्थिर कर लेने में समर्थ हो जाता है। तभी उसे अष्टसिद्धियां भी प्राप्त होती हैं। हनुमानजी अष्टसिद्धियों के दाता हैं। उनके द्वारा समय-समय पर प्रदर्शित किये गये अष्टसिद्धियों के उदाहरण भी गोस्वामी श्री तुलसीदासजी ने रामचरितमानस में विभिन्न स्थलों पर दिये हैं।
आयुर्वेद के आचार्य-चरक, वाग्भट्ट, सुश्रुत आदि महर्षियों ने इस शास्त्र को मुख्यतः तीन तत्त्वों या दोषों पर अवलम्बित बताया है- (1) वात, (2) पित्त और (3) कफ। ये तीनों दोष आयुर्वेद के मुख्य स्तम्भ हैं। इनकी विषमता ही रोगोत्पत्ति का कारण है। इन तीनों में भी ‘वात’ ही प्रधान है। संसार के सारे कार्य वायु द्वारा ही होते हैं। जीवधारियों के शरीर का संपूर्ण पोषण क्रम वायु द्वारा ही होता है। मनुष्य के शरीर में उचित रूप में वात तत्त्व के होने अर्थात् वायु की स्थिति आयुर्वेदानुसार पर्याप्त मात्रा में होने पर ही उसे स्वस्थ कहा जा सकेगा।
मानव शरीर में दसों वायुओं के कार्य भिन्न-भिन्न हैं- श्रीहनुमानजी पवन-पुत्र हैं, अतः वे वायुस्वरूप और प्रधान वायु के अधिष्ठाता हैं। वात के अधिष्ठाता होने के कारण हनुमानजी की आराधना से संपूर्ण वात-व्याधियों का नाश होता है। श्रीरामभक्त श्रीहनुमानजी सभी रोगों को नष्ट करने वाले हैं; क्योंकि प्रत्येक रोग का दोष वायु के माध्यम से ही उत्पन्न होता है। यदि वात शुद्ध रूप में स्थित है तो मनुष्य प्रायः निरोग रह सकेगा। आध्यात्मिक दृष्टिकोण से संपूर्ण रोगों के मूल कारण प्राणी के पूर्व या इसी जन्म के पाप ही होते हैं, अतः आयुर्वेद के ज्ञाता महर्षियों ने अपनी संहिताओं में स्पष्ट किया है कि देवार्चनपूर्वक औषधि सेवन से ही मानसिक और शारीरिक व्याधियां दूर होती हैं-
जन्मान्तरकृतं पापं व्याधिरूपेण बाधते। च्छान्तिरौषधप्राशैर्जप होमसुरार्चनैः।।
जप, हवन, देवार्चन ये भी रोगों की औषधियां हैं, ऐसी भी आयुर्वेद की मान्यता है। जो असाध्य रोगी हों और जीवन से हताश हो गये हों, उन्हें हनुमानजी की आराधना अवश्य करनी चाहिए। वात-व्याधि के लिए श्री पवनकुमार की उपासना एवं उनके मंत्रों का जप विशेष रूप से लाभप्रद होता है। श्रीतुलसीदासजी की भुजाओं में वायु प्रकोप से भीषण पीड़ा हो रही थी। उस समय उन्होंने ‘हनुमानबाहुक’ की रचना करके उसका चमत्कारी प्रभाव अनुभव किया। यह हनुमानजी की कृपा का प्रत्यक्ष उदाहरण है। अब यहां पाठकों के लाभ हेतु श्रीहनुमानजी से संबंधित कुछ प्रयोग दिये जा रहे हैं जो रोग, क्लेश, व्याधि, निवारक तथा आशु फलप्रद हैं। इन प्रयोगों को दृढ़ विश्वास के साथ करने पर निश्चय ही कष्ट और वात व्याधि से छुटकारा मिल जाता है।
सर्वप्रथम श्रीहनुमानजी का चित्र सामने रखकर पवित्रतापूर्वक पूर्वाभिमुख आसन पर बैठ जायें और पंचोपचार (चंदन, अक्षत, फूल, धूप, दीप) से हनुमानजी का पूजन करें। इसके बाद निम्नलिखित मंत्र का यथाशक्ति जप करें, किंतु यह जप कम-से-कम 5 माला प्रतिदिन होना आवश्यक है। संभव हो तो ईशानकोण में शुद्ध घी का एक दीपक भी जलाकर रख दें-
हनूमन्नंजनीसूनो वायुपुत्र महाबल। अकस्मादागतोत्पातं नाशयाशु नमोऽस्तु ते।।
इस मंत्र का जप अनुष्ठान- विधि से भी कर सकते हैं। उसके लिए 11 दिनों तक नित्य 30 माला का जप होना आवश्यक है। बाद में दशांश जप या हवन करके ब्राह्मणों को भोजन कराना चाहिए। इससे व्याधि शीघ्र ही नष्ट हो जाती है, परंतु इस अनुष्ठान विधि के नियम कुछ कठोर हैं। इसमें ब्रह्मचर्य, अक्रोध, सत्यभाषण और सात्त्विक आहार या फलाहार आवश्यक है। इस विधि से जप करने पर सफलता निश्चित है। इस मंत्र के जप की एक तीसरी विधि और भी है, जो सभी अवस्थाओं के नर-नारियों के लिए सुलभ है। इसमें साधन की आवश्यकता नहीं है, अपितु दिन-रात में जब भी अधिक से अधिक अवसर प्राप्त हो सके, इस मंत्र का मानसिक जप करना चाहिए। यह जप जब तक रोग शांत न हो जायें, तब तक दृढ़ विश्वास और उत्साह के साथ नियमित रूप से करते रहें। इस प्रकार चलते-फिरते और काम करते हुए भी यह जप किया जा सकता है।
2- नासै रोग हरै सब पीरा। जपत निरंतर हनुमत बीरा।।
यह घोर वात-व्याधि का शामक है। इसका जप यथाशक्ति अधिक से अधिक करने का प्रयत्न करें तो कष्ट शीघ्र ही दूर हो जाता है।
बुद्धि हीन तनु जानि के सुमिरौं पवनकुमार।बल बुद्धि विद्या देहु मोहि हरहु कलेस विकार।।
इस दोहे का जप कलह, क्लेश, रोग एवं शारीरिक दुर्बलता दूर करने में विशेष लाभप्रद है। इस प्रकार ये तीनो मंत्र शारीरिक एवं मानसिक व्याधि के विनाशक हैं। जब तक रोग नष्ट न हो जाए, तब तक इनका जप करते रहना चाहिए।
इस प्रकार आयुर्वेद-शास्त्र में रोगनिवारणार्थ श्रीहनुमान जी की आराधना का महत्वपूर्ण एवं चमत्कारी वर्णन है। एक विशेष महत्वपूर्ण बात यह है कि श्रीहनुमानजी के उपासक को चरित्रवान् होना परम आवश्यक है। सदाचार से श्रीहनुमानजी विशेष प्रसन्न होते हैं और शीघ्र ही मनःकामना को पूर्ण कर देते हैं।
प्लीहा (तिल्ली) रोगनिवारक मंत्र-
प्लीहा-एक प्रकार की उदरग्रन्थि, जो पेट के पाश्र्वभाग में होती है, अत्यंत छोटी उत्पन्न होकर रोग के कारण यथाक्रम बहुत बड़ी हो जाती है। आयुर्वेद के अनुसार बहुत दाह करने वाले तथा उदरगत रक्त-छिद्र को रोकने वाले अन्नादि पदार्थों के निरन्तर खाते रहने से प्लीहा (तिल्ली)- रोग होता है। शनैः शनैः यह ग्रन्थि बेरतुल्य से बढ़कर तरबूज के तुल्य भी हो जाती है। इसको घटाने के लिए अति पवित्रता के साथ ब्रह्मचर्य का पालन करते हुये- ‘ॐ यो यो हनुमन्त फलफलित धगधगित आयुराष परुडाह’
इस मंत्र का दस हजार जप करें, और फिर प्लीहा-रोग से आक्रांत मनुष्य को सीधा लिटाकर उसके उदर पर नागवल्लीदल (नागरबेल के पत्ते) रखें। पत्तों के ऊपर आठ तह किया हुआ कपड़ा रखें और कपड़े के ऊपर सूखे बांस के पतले- पतले टुकड़े रख दें। इसके बाद बेर की सूखी लकड़ी लेकर उसको जंगली पत्थर से उत्पन्न की हुई आग से जलायें और रोगी के पेट पर रखे हुए वंश-शकल (बांस के टुकड़ों) को उपर्युक्त हनुमंत्रमंत्र के उच्चारण के साथ (उस जलती हुई लकड़ी से) सात बार ताड़ित करें। इससे उदरगत प्लीहा शांत होती है। इस प्रयोग को सात बार करना चाहिए।
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