सनातन संस्कृति में भोजन से भी ऊँचा स्थान स्नान का है, भोजन के लिये तो फिर भी स्वस्थ मनुष्य के लिये कभी-कभी निषेध किया जाना कोई बडी बात नहीं है, लेकिन एक स्वस्थ मनुष्य के लिये ऐसा एक दिन भी नहीं निर्धारित है, जिसमें स्नान करने का निषेध किया गया हो। स्नान में भी तीर्थ स्नान का विशेष महत्व है, और तीर्थ स्नान के लिये सर्वोत्त्म स्थान समुद्र ओर गंगा, नर्मदा, गोदवारी आदि महानदियां हैं, उनके अभाव में छोटी छोेटी नदियां, प्राकृतिक स्त्रोते, स्वच्छ जल के ताल, सरोवर, बावली ओर कुएँ भी हैं, जिस जल की पवित्रता सन्दिग्ध हो, और जो जल स्वास्थ्य के लिये हानिकर हो, अथवा चित्त के लिये अस्वच्छ हो, ऐसे जल में स्नान नहीं करना चाहिये।
जल के समीप शुद्ध भूमि पर अपने वस्त्र आदि स्थापित करके सर्वप्रथम जलाधिष्ठात्री देवता को नमस्कार करके स्नान की अनुमति मांगे, ओर फिर अपने ऊपर जल छिड़कर संकल्प करे- ‘ॐ अद्येत्यादि अमुकगोत्रः अमुकनामाहं भगवत्प्रीतये अमुकतीर्थे स्नानं करिष्ये।’ इसके पश्चात् अपनी शाखोक्त पद्धति से वैदिक स्नान करके फिर इष्ट मंत्र से अंगन्यास और प्राणायाम करें।
ॐ गंगे च चमुने चैव गोदावरि सरस्वति।
नर्मदे सिन्धु कावेरि जलेऽस्मिन् सन्निधिं कुरू।।
इस मंत्र से अंकुश मुद्रा करते हुए ऐसी भावना करें कि, सूर्य मण्डल से साक्षात् इस तीर्थ की अधिष्ठात्री देवता उतर रही हैं ‘वं’ इस अमृत बीज का उच्चारण करके धेनुमद्रा करते हुए ऐसी भावना की जाये कि यह जल अमृत स्वरूप हो गया है ‘हुं’ इस मंत्र से कवच मुद्रा के द्वारा अवगुण्ठन करके ‘फट्’ इस मंत्र से संरक्षण करके और ग्यारह बार इष्ट मंत्र का जप करके जल को अभिमन्त्रित करें।
और फिर सूर्य को बारह अंजलि जल देकर यह भावना करें कि मेरे इष्टदेव के चरण कमलों से ही यह जल निकला हुआ है, परम पावन चरण कमलों से ही यह जल निकला हुआ है, इसलिये यह जल परम पवित्र और पावन है। तत्पश्चात् उसमें तीन डुबकी लगावें, तथा अपने इष्ट देव का स्मरण करते हुये मंत्र का जप करें। कलश मुद्रा से अपने सिर पर तीन बार अभिषेक करें और तत्पश्चात् वैदिक सन्ध्या और तर्पण आदि करें। सूर्याघर्य, अघर्षण ओर तर्पण आदि क्रियाएँ वैदिक विधि से भी की जाती हैं, देवतर्पण, ऋषितर्पण एवं पितृतर्पण करें, गुरू, परमगुरू, परापर गुरू और परमोष्टिगुरू का भी तर्पण करना चाहिये।
इसके अतिरिक्त चाहे गंगा में स्नान करते हों या अन्यत्र, श्रीगंगाजी का ध्यान ओर मंत्र जप अवश्य कर लेना चाहिये। साधारणतः एक तीर्थ में दूसरे तीर्थ का ध्यान करना तीर्थापराध माना जाता है, परंतु गंगा का स्मरण अपवाद स्वरूप तीर्थापराध नहीं है, इस लिये गंगा का ध्यान इस प्रकार करना चाहिये- ‘वे शुद्ध स्फटिक के समान श्वेत वर्ण माता हैं, श्वेत वस्त्र, श्वेत आभूषण, श्वेत पुष्पमालाओं श्वेत ही मुक्ता माला धारण किये हुए हैं, उनकी अवस्था सर्वदा सोलह वर्ष की रहती है, और ब्रह्मादि देवता, बड़े बड़े ऋषि महिर्ष उनकी सेवा में संलग्न रहते हैं, इस प्रकार का ध्यान करके उनके मंत्र का जप करना चाहिये। उनका मंत्र है- ॐ हृीं गंगायै ॐ हृीं स्वाहा’। उपर्युक्त ध्यान करके इस मंत्र का जप करते हुए चाहे जहां भी स्नान किया जाये, गंगा स्नान का फल ही प्राप्त होता है।
वैसे तो शास्त्रों में स्नान सात प्रकार के कहे गए हैं, उनके नाम ये हैं- मांत्र, भौम, आग्नेय, वायव्य, दिव्य, वारूण ओर मानस। ‘आपोहिष्ठा, इत्यादि मन्त्रों से जो मार्जन होता है, उसको मांत्र स्नान कहते हैं। शरीर में मिट्टी लगाकर उसके प्रक्षालन को भौम स्नान कहते हैं। भस्म स्नान को आग्नेय स्नान कहते हैं। गौओं के चरणों की धूलि जब वायु के द्वारा उड़कर आती है, ओर सारे पापों को धोकर शरीर को पवित्र कर देती है, यह गोरज स्नान जब इच्छा पूर्वक किया जाता है, तब इस प्रकार के एक स्नान को वायव्य स्नान कहते हैं। जब धूप हो, और उसी समय वर्षा भी हो, ऐसा स्नान दिव्य स्नान कहलाता है। जल में डुबकी लगाना वारूण स्नान कहलाता है, और भगवान् का चिन्तन मानस या आभ्यन्तर स्नान कहलाता है। मानस स्नान अपने-अपने इष्टदेव के अनुसार होता है, यहां उसके कुछ प्रकार विशेष लिखे जाते हैं-
वैष्णव का आभ्यन्तर स्नान इस प्रकार होता हैं- ‘साधक को ऐसा चिन्तन करना चाहिये कि ऊपर मेरे सामने आकाश में द्वादशदल कमल पर, जिसके प्रत्येक दल पर द्वादशाक्षर मंत्र का एक एक अक्षर अंकित है, शंख चक्र गदाधारी चतुर्भुज भगवान् विष्णु विराजमान हैं, वे वनमाला पहने हुए हैं, उनके नेत्र कमलों से आशीर्वाद ओर प्रेम की वर्षा हो रही है, उनके मुख कमल से कोटि कोटि सूर्यो के समान प्रकाश की किरणें चारो ओर फैल रही हैं, उनके चरण कमलों से अमृत की एक धारा निकलकर मेरे सिर पर गिर रही है, और मेरे ब्रह्मरन्ध्र के द्वारा शरीर में प्रवेश करके समस्त वासनाओं, संस्कारों को धो रही है, मेरा शरीर, अन्तःकरण और स्वयं मैं स्फटिक मणि के समान स्वच्छ एवं निर्मल हो रहे हैं।’ ऐसी भावना से जो आभ्यन्तर स्नान किया जाता है – शास्त्रकारों ने कहा है कि, वह मांत्र स्नान से भी हजार गुना उत्तम स्नान है।
शाक्तों के आभ्यन्तर स्नान में ऐसा चिंतन होता है कि- ज्ञानानन्द स्वरूपिणी महामाया अपने बीजाक्षर ‘हृीं’ के रूप में प्रकट हो रही हैं, तीन ‘हृीं’ में से सत्, चित् और आनन्द की तीन धाराएँ प्रवाहित होकर मुझे सम्पूर्ण रूप से आप्लावित कर रही हैं, ये धाराएँ अविच्छिन्न आनन्द, अनन्त ज्ञान और अखण्ड स्वातन्त्रय का वितरण करती हैं, इनका अनुभव केवल भावुक साधक ही कर सकता है, जो इस प्रकार आभ्यन्तर स्नान करता है, वह कृतकृत्य हो जाता है। शैवों का आभ्यन्तर स्नान इस प्रणाली से होता है- ‘अपने इष्ट मंत्र से प्राणायाम करके मूलाधार से लेकर आज्ञाचक्र तक शक्ति का उत्थान और गमन सम्पन्न करके सहस्रार स्थित परमशिव के साथ उसका संगम करावें। उन दोनाें के सम्मिलन से प्रकट अमृत की धारा में मैं स्नान कर रहा हूं। ऐसी भावना करें।’ यह शैवाभ्यन्तर स्नान सद्योमुक्ति स्वरूप है।
इसी प्रकार अन्य देवताओं का भी आभ्यन्तर स्नान होता है।
जैसे पृथ्वी तल में और स्थूल ब्रह्माण्ड में गंगा, मन्दाकिनी, भोगवती आदि अनेकों नदियां और मानस सरोवर आदि अनेकों तीर्थ स्नान के लिये विशेष महत्व के माने गये हैं, वेसे ही पिण्ड ब्रह्माण्ड के अत्यन्त सूक्ष्म भावराज्य अथवा मनोमय जगत् में भी स्नान के अनेकों तीर्थ माने गये हैं, यह भी कहा गया है कि, जो अन्तर्जगत् के तीर्थो में स्नान करते ले, उन्हें बाह्य तीर्थो के स्नान की विशेष अपेक्षा नहीं रहती। जगत् के सुख दुःख ओर बन्धन मुक्ति का कारण मन ही है, जिसका मन तीर्थ सेवी हो गया, वह समस्त गोरख धन्धों से छुटकारा पा गया।
उदाहरण के लिये मनुष्य के हृदय में पुष्कर तीर्थ है, शिरोभाग में बिन्दु तीर्थ है, सुषुम्णा में शिव तीर्थ है, इड़ा, पिंगला ओर सुषुम्णा का जहां समागम होता है, वहां त्रिवेणी तीर्थराज है, भौंहों के बीच में वाराणसी है, इसी प्रकार छहों चक्रों में विशेष विशेष तीर्थ हैं, उनमें जो स्नान करता है, वह ऐसे स्नान मात्र से ही समस्त पापों से मुक्त एवं भगवत्प्राप्ति का अधिकारी हो जाता है।
स्नान की उपर्युक्त विधि शरीर, प्राण, मन सभी की दृष्टि से कितनी लाभप्रद हैं- यह कहने की आवश्यकता नहीं।
स्नानोपरांत वस्त्र धारण के सम्बन्ध में भी यह नियम है कि, यदि जल के अंदर ही नित्यकर्म करना हो तब तो गीले वस्त्र से ही कर लेना चाहिये, परन्तु यदि थल पर करना हो तो, अवश्य ही सूखा वस्त्र पहन लेना चाहिये। वस्त्र शुद्ध होना चाहिये और सादा भी। गीला वस्त्र कभी नहीं पहनना चाहिये। सिले हुए, जले हुए, फटे हुए और दूसरे का वस्त्र पहनकर नित्यकर्म करने का निषेध है।
न कुर्यात् सन्धितं वस्त्रं देवकर्मणि भूमिप। न दग्धं न च वै छिन्नं पारक्यं न तु धारयेत्।।
यहां ‘पारक्य’ का अर्थ दूसरे का किया गया है, अर्थात् विदेशी वस्त्र पहनकर नित्यकर्म नहीं करना चाहिये। श्वेत वर्ण का रेशमी वस्त्र नित्यकर्म में तो प्रशस्त है, पर उसे पहनकर स्नान नहीं करना चाहिये। ऊनी वस्त्र मलमूत्र के त्याग के समय नहीं पहनना चाहिये। बाकी सब समय पहना जा सकता है, ऊनी कपड़े की अशुद्धि अग्नि के ताप, वायु और सूर्य की किरणों से ही नष्ट हो जाती है, इष्ट और कर्मो के भेद से भी वस्त्र भेद होता है, इन सब बातों का विचार करके ही वस्त्र धारण करने चाहिये। वस्त्रों के मैला रहने से शरीर और चित्त पर उनका बुरा प्रभाव पड़ता है, इसलिये वस्त्रों को सदा धोकर साफ रखना चाहिये। बिना धोये अथवा धोबी के यहां धोये हुए वस्त्र भी अपवित्र माने गये हैं, (वस्त्र स्वयं के धुले ही पहने चाहिए) धोबी के घर धुले वस्त्रों को फिर से धोकर पहनना चाहिये। मैले, गंदे और दूषित वस्त्र अस्वास्थ्य, ग्लानि आदि के कारण होने से भावोत्पत्ति में प्रतिबन्धक होते हैं, भगवदीय अथवा आध्यात्मिक रस की अनुभूति के लिये जितने भी उद्दीपन आवश्यक हैं, उनमें वस्त्र भी हैं, इसलिये उस पर भी विचार कर लेना चाहिये।
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